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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१७ बार्थ प्राप्तहोकर, अनेक संप्रदायागत सत्यार्थवातोंका त्यागकर, कषायवससे गृहस्थके लिंगको प्रमाणकर, उसीमे रहकर किंचित् मनमाने सूत्रोंके, मनमानेटवार्थका आधारलेकर एकान्त जिनाज्ञा विरुद्ध अर्थका प्ररूपक कुत्सितपुरुष श्वेताम्बर जैनशासनमें उत्पन्नभया, वाद संवत् १५२४ अथवा ३१ में लुंपकमत प्रचलितभया, यह लैपकमत स्वछंदाचारी ४५ पुरुषोंने मिलकर प्रथम प्रचलितकराहै, इसढुंपकमतकी यहशब्दव्युत्पत्तिहै, लुपति श्रीजिनप्रतिमादि सत्यार्थ, इति लुपकः, इत्यादि सत्यार्थ शब्दव्युत्पत्ति इसमतकीहै इसतरे लुंपकमत उत्पन्नहोकर प्रचलितभया, इनमें स्वयंबुद्धाभिमानको धारण करके, मनोकल्पित प्रथम वेषधारक संवत् १५३३ में भानाथा भूणा रिषिभया, इनकी उत्पत्ति ऐसीहै, अहमदाबादमें दशा श्रीमालीलोकानामें एकलेखकथा, सो जतियांक पुस्तकां लिखताथा, एकदा तपगछका ज्ञानजी जतिके पुस्तकलिखी, जिसमें बहुतहि खोट रहगई, तब ज्ञानजी कुछकठोर वचनबोले, जबलोंका लडनें लगा, तब धक्कादेके लोकाकों निकाल दिया, पीछे वहलोंका नींबडी जायके राजकारभारी लखमसी नामक वाणियेंके सामने कूका, तब लखमसीने हकीकत पूछी, लोंकेनें कहा, सच्चाधर्म कहेता तपाजतियांने मास्यो,तब लखमसी बोला इहांतुथारो मतचलाव, में तेरा पक्षहुं सुनकर लोकाखुसी हुवा, और अपणे मनमें रागद्वेषके प्रभावसें सोचनेलगा, अहोतीर्थंकर गणधर सामान्यकेवली श्रुतकेवली वगेरेका तो आज अभावहै, तो फेर इनजतिआदिकके पराधीन रहकर आजीविका करने में मुझको क्या सुख है, इसलिये में स्वतंत्र होकर अपणी मरजीप्रमाणे धर्मप्ररू ३४ दत्तसुरि० For Private And Personal Use Only
SR No.020407
Book TitleJinduttasuri Charitram Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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