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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०१ मंदिरमे स्थापे मंदिरकी प्रतिष्ठा करी, तथा जालोरनगरमें श्रीपावनाथजीकी प्रतिष्ठा करी, तथा आगरानगररहनेवाले श्रीसंघके आग्रहसें साथ होके, श्रीसेठेजयकी यात्राकरके आषाढ वदि ७ सप्तमीके दिन पाटणनगरमें पधारे तथा श्रीगुरुमहाराजके १२०० बारसैं साधु संप्रदायमें भए. १०५ एकसो पांच साधवीयोंका संप्रदाय भया, तथा श्रीगुरुमहाराज श्रीविनयप्रभादिक शिष्योंको उपाध्यायपददीया, जिस विनयप्रभ उपाध्यायनें निर्धनभया अपने भाईकों संपत्तिकेवास्ते मंत्रगर्भित श्रीगौतमरासवीरजिनेसरचरणकमलकमलाकयवासोयहबनायके दिया, तिसके गुणनेंसें अपना भाई धनवंत भया, इसमाफक बहोतश्रावक प्रतिबोधक चैत्यवंदनकुलकवृत्यादि अनेक शास्त्रोंके कर्ता, परमजिनधर्मप्रभावक, श्रीजिनकुशलसरिजी संवत् १३८९ फागुणवदि अमावसके रोज, देराउर नगरमें ८ आठदिनतक अणशण करके स्वर्गप्राप्तभए, वह अभीतक दादोजी ऐसे नाम करके सर्व जगत्रमें प्रसिद्ध हैं, प्रतिनगरमें गुरुमहाराजके चरणकमल पूजीज रहेहैं, सोमवतीपूनमकों प्रथम दर्शन दिया श्रीसंघकों, तिसकारणसें सोमवार पूनमकों विशेषकरके दर्शन पूजन होवेहै ॥ अथ अन्तिम मंगलाचरणम्-कुशलबडो संसार, कुशल सज्जन घर चाहै, कुशले महगलमाल, लछिघर कुशलै आवे, कुशले धन वरसन्त, कुशल धन धन सुवन्नौ, कुशले घोडा थह, कुशल पहिरीये सुवन्नो, ऐरिसोनाम सदगुरुतणो, कुशले जगर ली यामणो, भट्टारक श्रीजिनकुशलसूरि नाम ग्रहणें करी, घरघर होत वधामणौ ॥२॥ इति श्रीजिनकुशलमरिणां चरित्रं समाप्तं ॥ ३३ दत्तसूरि. For Private And Personal Use Only
SR No.020407
Book TitleJinduttasuri Charitram Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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