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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५७ चैत्यवासी आचार्यों करके वासितवर्ने है, किंबहुना, वैसादेशान्तरमें रहे हुवे, अनेकगामनगरादिकोंमें विहारकरतेहूवे, चितोडपर्वतके किलेमें पहोचे, परन्तु चितोडनगरसंबंधि सबहि लोक क्षुद्र चैत्यवासीयों करके भावितहै, तोभी अयुक्त उपसर्गपरिसहादिक कुछभी करणेकुं नहिं समर्थभये, श्रीअणहिलपुर पाटणमें विचरते हुवे श्रीगुरूमहाराजकी बहुतहि बड़ी प्रसिद्धिकीर्ति प्रभाव सुणनेसेंहि हतप्रभाव हूवे, बल पराक्रम धैर्यादिक जिणोंका नष्ट हुवा, इसलिये कुछभी अयुक्तव्यवहारकरणेके लिये समर्थ नहिं हूवे, वादमें वाचनाचार्य श्रीजिनवल्लभगणिजीनें वहां चितोडनगरीका लोकोंके पासमें रहेणेके लिये स्थान मांगा, तब चितोडनगरीके श्रावकोंने कहा हे भगवन् इहांपर रहणेके लिये कोइ स्थान नहिं हैं परंतु एकचंडिकादेवीका मठ है, जो वहां आप रहोतो हाजरहै, तब वाचनाचार्यश्रीजिनवल्लभगणिजीनें शुद्धज्ञानोपयोगसें जाणाकि, दुष्टआशयसें यहकहेतेहैं, तथापि वहां रहेणेसेभी श्रीदेवगुरुके प्रसादसें कल्याणहोगा, यह विचारके उण श्रावकोंसे कहा, तुमारी आज्ञा होवे तो वहां चंडिकादेवीके मठमें हमरहैं, यह सुणकर उण क्षुद्राशयवाले श्रावकोंने कहा कि-हमारे अतिशय कर सम्मत है, आप चंडिकादेवीके मठमें रहो, तब वाचनाचार्य श्रीजिनवल्लभगणिजी श्रीदेवगुरूका अछी तरह स्मरण करके श्रीचंडिकादेवीकी स्तुति प्रदान पूर्वक अवग्रहलेके, चंडिकादेवीके मठमें रहे, श्रीमतीचंडिकादेवी वाचनाचार्य श्रीजिनवल्लभगणिजीके ज्ञान ध्यान तप संजम वगेरेह सदनुष्ठान करके प्रसन्न हुई दुष्ट प्रयुक्त छल छिद्र मंत्र तंत्र यंत्र वसीकरणादि १७ दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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