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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .२३ इहां आवे, इसतरे विचारकरके अपने सांसारिक कार्य में लगगये, वाद कितना काल वीतने पर नैमित्तीयेके वचनानुसार भाव होने शरु हूवे तथापि मोहके वश होकर सुहवदेवी नामुकी कन्या के साथ सगाई करी, वाद क्रम से विवाहभी हूवा वाद माता पिता समाधिसें कालधर्म प्राप्त हूवे, वाद अपने माता पिताका स्वकुलोचित लोकिक व्यवहार निपट करके, तिसकेबाद दायभागादिकभी देलेकर निश्चित हूवाथका अपनी स्त्री सुवदेवीकों उसके पीहर पोहोचाके, अपना हार्दिक अभिप्राय किसीके आगेनहिं कहके विदेशगमनकेलिये किया है मनमे निश्चय जिसनें ऐसा यह आनंदकुमार अपने घर आयके रहा, और चोथ शनि रोहिणी का संयोग आनेपर रात्रिके पश्चिम भागमे अर्थात् कषाकाल मे विदेशजानेका मन ऐसा यह आनंदकुमार चंद्रनाडी वहां थकां डावा पाव आगे करके अपने घरसें उत्साह सहित निकला तब माघ मास था, अनुक्रमसें ग्रामनगर आकरादिक फिरता हूवा यह आनंदकुमार श्रीफल - वर्धिक पुर में प्राप्तहूवा और विसनगरमे स्वेछासें फिरता हूवा धर्म स्थानोंकोदेखरहा है, तिसअवसरमे उसके प्रबल पुन्यसेंहिमानुं खेंचा हूवा होवे एसा एक मुनि अकस्मात् उपाश्रयसें बाहिर निकला, तब उस मुनिकों देखकर यह आनंदकुमार अनहद हर्षकों प्राप्त हुवा, और कहा आपलोक कोनहो और क्या करोहो, तबमुनि बोला हे भद्र इमलौक जैनीसाधू हैं, और ज्ञान ध्यानतप संयम करतें हैं, और तेरे कोंभि यह करना होतो हमारेपास आव, तब वह धर्म श्रद्धालु आनंदकुमार शीघ्र हि सर्व मुनियों सहित श्रीगुरुमहाराजके समीपमे आकर नमस्कार करके इसतरे बोला कि हे भगवन् आपकावेश वचन धर्मकृत्य मुझे भिरुचा For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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