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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७७ त्याग करणेवाले और श्रेष्ठ है नाम जिणोंका ऐसें श्रीवर्द्धमान सूरीश्वरजी हैं सो हमारे गुरु महाराज हैं वहभि पधारे हैं, पुरोहित-बोला आपश्री सर्व मिलके कितने हो ऐसा विस्मयपूर्वक पूछणेसें पंडित जिनेश्वरगणिः बोले कि १८ पाप स्थानकसे रहित हम १८ साधु हैं पुरोहित अपणे मनमें विचारे है अहो त्यक्तदाराः सदाचारा मुक्तभोगा जितेन्द्रियाः। गुरवो यतयो नित्यं, सर्वजीवाऽभयप्रदाः॥१॥ व्याख्या-स्त्रीका त्याग करनेवाले श्रेष्ठ आचारवाले भोगरहित इंद्रियोंकुं जीतणेवाले और नित्य सर्वजीवोंकुं अभयदेनेवाले जो यति हैं सो गुरु हैं इसतरे दमाध्यायमे कहा है वेसाहि यह आत्मा सद्गुरु हैं इणोंकुं अपणे घरमेहि लाके, पापरहित इणोंके चरणकी पवित्र धूलिसे मैरे घरका आंगण पवित्र करूं ओर प्रगट पुण्यराशिरूप इणोंका निरंतर दर्शन करनेसे मैरा जन्म सफल होगा इसतरे विचारके और बोला कि हे महासात्विकमुनिवर्यो च्यार शालावाले विस्तीर्ण मेरे घरमे एक दरवाजेसें प्रवेश कर एक शालामे पडदा कर आप सर्वमुनिसुखपूर्वकरहो ओर भिक्षाके अवसरमें मेरा आदभी आपश्रीके साथमे होणेसें ब्राह्मणोंके घरोंमे सुखसें भिक्षा मिलेगी और आपको मिक्षामेभि कुछ हरकत होगी नहीं उसके बाद पंडित जिनेश्वरगणिजीने कहा कि तुमारे जैसे उचित अवसर जाणणेमे मनोहर चित्तवाले दूसरे कोण हैं इसतरे कहते हुवे बोले कि प्रेक्षन्ते स्म न च स्नेहं, न पात्रं न दशान्तरं । सदा लोकहितासक्ता, रत्नदीपा इवोत्तमाः॥१॥ १२ दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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