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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७६ - मुनेरपि वनस्थस्य, खानि कर्माणि कुर्वतः। उत्पद्यन्ते त्रयः पक्षाः, मित्रोदासीनशत्रवः ॥१॥ व्याख्या-चनमें रहे हुवे और अपणे धर्मकार्य करनेवाले ऐसे मुनियोंकेभी मित्र उदासीन शत्रु यह तीन पक्ष उत्पन्न होते है ॥१॥ पुरोहित कहने लगा यह घणी खेदकी बात है जो कि चंदन सदृश सीतल ऐसे आप जैसौकाभि पापीलोकों अहित करते है इस प्रमाणे पुरोहित थोडी वखत सोचके और कहने लगा कि, वह कौनसें दुर्विनीत हैं, उनुकुं मैं जाणना चाहताहं पंडित श्रीजिनेश्वरमरिजीने कहा हे महात्माजी उणोंके कल्याण होवो, उ. णोंकी वार्ता करणे कर हमारे क्या प्रयोजन है इसतरे सुणके पुरोहित अपणे मनमें विचारणे लगा कि ॥ त एते सुकृतात्मानः, परदोषपराङ्मुखाः, परोपतापनिर्मुक्ताः, कीर्त्यते यत्र साधवः ॥१॥ व्याख्या-जो परदोषसे विमुख है और परको संताप देणेसें विरक्त है वेंहि पुण्यात्मा और साधु होतें है ॥१॥ तो यह महात्मा किसवासते अपणे प्रतिपक्षियोंका नाम कहै और मेरेमि दुरात्माओंका नाम सुनना अकल्याणकारी है इसलिये नाम नहीं लेना अच्छा है दूसरा पूछ इसतरे विचारके प्रगटपणे पुरोहितने पूछा कि आपश्री इतनेहि हो या दूसरे भी कोई मुनियों हैं पंडित श्रीजिनेश्वरगणि, वोले कि जिनके हम शिष्य हैं वे अपणी बुद्धिसें बृहस्पतिकुं जीतनेवाले सब जीवके रक्षक और हमारे गुरु तथा सर्व परिग्रह स्त्री धन धान्य खजन स्नेह संबंध For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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