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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६३ पाप सहू जाये ॥ १५ ॥ तंबोलनें भोजन पान जूआ, मल मूत्र सयन स्त्रीभोग हुआ, भूषण पनही ए जघन्यदसे, वरज्या जिन मंदिरमां हि वसे ॥ १६ ॥ द्रव्यतनें भावतदोय पूजा, एहनाहिज भेद का दूजा, सेवा प्रभुनी मन सुद्ध करे, वंछित सुखलीलाते हवरे || १७ || कलश ॥ इम भव्यप्राणी भावआणी विवेकी शुभवातना, जिनबिंबअरचे परिवरजे चोरासी आसातना, ते गोत्रतीर्थंकर उपार्जेनमें जेहनें केवली, उवज्झाय श्री धर्मसींह वंदे जैन शासन ते बली ॥ १८ ॥ इति श्री चौरासी आसातना स्तवनं संपूर्णम् इण आशातनाओंका अछीतरे विचार करणेसें, उस पुण्यात्मा के मनमे, यह भावना उत्पन्न हूइ, के जो यह आशातनाकों किसी प्रकार टाली जावे, तब हि संसारवनसें निस्तारा होवे, अन्यथा अगाध इस संसारसमुद्रके बीचमे पडे हुवे मेरेकुं अनंतिवार जन्म जरा मरण दरिद्र दौरभाग्य रोग शोकादि संतापका भाजनहि होना होगा, और अपणे दोषसें इस अपणे आत्माकुं अनन्त भव भ्रमण और दुर्गतिका भागी अपणे आपहि करणा होगा, और यह कहा है कि आसायण मिछत्तं, आसायणवज्जणाय सम्मत्तं, आसायण निमित्तं, कुछ दीहंच संसारं १ आसातनास मिध्यात्व होता है आशातना वर्जनैसै सम्यक्त होता है आशातनासे भव भ्रमण होता है जो मेरा शुभ अध्यवसाय है इसलिये वर्द्धमाननामा मुनिनें अपणे गुरुकुं निवेदन किया बाद उस चैत्यवासी जिनचंद्र नामक गुरुनें अपणे मनमे विचारा कि अहो इसका यह आशय है सो अछा नहिं है इसवास्ते इसकुं आचार्यपद मे बैठायके मंदिर For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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