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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar १३९ आया, और आंसुसें नेत्र भरकर कहने लगा कि हे भगवन हम बडे पापी हैं क्यों कि आपकी ऐसी उत्तम गोष्टिका रस नहीं पी. सक्ते हैं कारण कि हम बड़े संकटमें पडे है, तब आचार्यने कहा तुमकों क्या संकट हुआ, राजा कहने लगा कि बहुत मेरे वैरी राजे एकठे होकर मेरा राज्य छीना चाहते हैं तब फेर आचार्यने कहा, कि हे राजन् तूं आकुल व्याकुल मत हो, जब मैं तेरा साहायकहों तो फेर तुझे क्या चिंता है यह बात सुनकर राजा बहुत राजी हुआ, पीछे आचार्य राजाको पूर्वोक्त दोनों विद्यायोंसें समर्थ कर दीया, तिन विद्यायोंसें परदल भंग हो गया तिनका डेरा डंडा सर्व राजाने लूट लीया, तब राजा आचार्यका अत्यंत भक्त हो गया, उस्से आचार्य सुखोंमें पडके शिथिलाचारी होगया, यह स्वरूप वृद्धवादीजीने सुना, पीछे दया करके तिनका उद्धार करने वास्ते तहां आये दरवाजे आगे खडे होकर कहला भेजा कि एक बूढा वादी आया है, तब सिद्धसेननें बुलाकर अपने आगे बैठाया वृद्धवादीसर्व अपना शरीर वस्त्रसें ढांककर बोले:-"अण फुल्लियफुल्ल मतोडहिं मारोवामोडिहिं मणुकुसुमेहिं ॥ अचिनिरंजणं जिण, हिंडहिकाइवणेणवणु ॥ १॥" इस गाथाकों सुनकर सिद्धसेनने विचारभी करा परंतु अर्थ न पाया तब विचार करा कि क्या यह मेरे गुरु वृद्धवादी है जिनके कहेका मैं अर्थ नही जानता हूं पीछे जब वार वार देखने लगा तब जाना कि यह मेरा गुरु है पीछे नमस्कार करके क्षमापन मांगा, और पूर्वोक्त श्लोकका अर्थ पूछा तब वृद्धवादी कहने लगे "अणफुल्लियेत्यादि" For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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