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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३८ यह सुनकर किसीने कहा कि यह स्थंभ औषध द्रव्यमय जलादि करकें अभेद्य वज्रवत् है, इस स्थंभमें पूर्वाचार्योनें बहुत रहस्य विडाके पुस्तक स्थापन करे है, परंतु किसीसें यह स्थंभ खुलता नहीं यह सुनकर सिद्धसेन आचार्य- तिस स्थंभकों सूंघा तिसकी गंधसें तिसकी प्रतिपक्षी औषधीयोंका रस, लगाया तिस्से वो स्थंभ कम लकी तरें खुल गया तव तिसमें पुस्तक देखा, तिसमें सुं एक पुस्तक लेकर वांचा, तिसके प्रथम पत्रमें दो विद्या लिखी पाई, एक सरसों विद्या, और दूसरी सुवर्णविद्या, तिसमें सरसों विद्या उसकों कहते है कि, जो काम पडे तब मंत्रवादी जितने सरसोंके दाने जपके जलाशयमें गेरे, उतनेही अश्वार बैतालीश प्रकार के आयुधों सहित बाहिर निकलके मैदानमें खडे हो जाते हैं तिनोंसें शत्रुकी सेना भंग हो जाती है, पीछे जब वो कार्य पूरा हो जाता है तब अश्वार अदृश्य हो जाते हैं और दूसरी हेमविद्यासें विनामेहनतके जितना चाहे, उतना सुवर्ण हो जाता है तब ये, दो विद्या सिद्धसेननें लेलीनी, पीछे जब आगे वांचने लगा, तर स्थंब मिल गया सर्व पुस्तक बीचमें रह गये, और आकाशमें देववाणी हुई, कि तूं इन पुस्तकोंके वाचने योग्य नहीं आगे मत वांचना, वांचेगा तो तत्काल मर जायगा, तब सिद्धसेनने डरके विचार करा कि दो विद्या मिली दोही सही, पीछे चित्रोडसें विहार करके पूर्वदेशमें कुमारपुरमें गये, तहां देवपाल राजा था तिसको प्रतिबोधके पक्का जैन धर्मी करा, तहां वो राजा सिद्धांत श्रवण करता है, जब ऐसें कितनाक काल व्यतीत हुआ, तब एकदा समय राजा छाना For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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