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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पीछे, सुमित्र राजायें १० दिवसपर्यंत, वडो जन्म महोच्छव करके, सर्व न्याती गोती प्रजागणकों मनसा भोजन करायके, सर्वके, सन्मुख, मुनिसुव्रत कुमर नाम स्थापन कीया । (नाम स्थापनका यह हेतु है) कि भगवान् गर्भ में स्थित हुवा, तब माता मुनिकी तरे, भले व्रतवाली होती भई (इस हेतुसें ) मुनिसुव्रत नाम दीया । कच्छपके लंछनयुक्त । श्यामवर्ण, शरीर प्रमाण २० धनुष हुवा । ३ ज्ञान सहित, महा तेजस्वी, १००८ लक्षणालंकृत, भोगावली कर्म निर्जरार्थे, विवाह करके, क्रमसें राज्यपद धारण कीया । पीछे अवसर आये, लोकांतिक वचनसें, मिति फागुण शुदि १२ के दिन, राजगृही नगरीमें, छठ तप करके, चंपेका वृक्षके नीचे, १००० पुरुषोंकेसाथ, दीक्षा ग्रहण करी ( उस वखत ) चोथो मनपर्यव ज्ञान उत्पन्न भयो । प्रथम छठ को पारणो, ब्रह्मदत्तके घरे, परमान्न क्षीरसें हुवा । ११ मास छमस्थपणे विहार करके, फिर राजगृही नगरीमें आये । वहां छठ तप सहित, फागुण वदि १२ के दिन, लोकालोक प्रकाशक, केवल, ज्ञान उत्पन्न हुवा (उस वखत) चतुर्निकाय देवगणका कीया हुवा समोसरणमें, १२ परिषदाके सन्मुख, भगवान् धर्मोपदेश देके, चतुर्विध संघकी स्थापना करी । भगवानके ३० हजार सर्व साधु भये (जिसमें ) मल्लि प्रमुख १८ गणधर हुये पुष्पवती प्रमुख ५० हजार सर्व साध्वी भई ॥२००० चैक्रिय लब्धिवंत भये ॥ १२०० वादी विरुद धारक भये ॥ १८०० अवधि ज्ञानी भये ॥ १५०० मनपर्यव ज्ञानी भये ॥ १८०० केव For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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