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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनशतक | खलश्वासावुलूकश्च खलोलूकः तस्य खलोलूकस्य । गवां रश्मीनां ब्रातः संघात: गोबातः । तमः अन्धकारः | तापी दहनस्वरूपश्च सम्पद्यत इत्यध्याहार्यः । अति अत्यर्थम् । भास्वतः आदित्यस्य । ते पुनः चन्द्रप्रभस्य भास्वतः प्रकाशयतः गोब्रातः वचनकदम्बकः नापि कस्यचित्तमो न ताप्यति तापि व्यतिरेकः । कालः समयः मुहूर्तादिः । अविकलग: अप्रतिहतः । अन्यत्र विकलगः प्रतिहतः । अघातः प्रतिपक्षरूपै तो नास्ति । अन्यत्र मेघादिभिरस्त्येव । समयोऽपि दर्शनमपि । अस्य भट्टारकस्य भास्वतः सन् । एवंभूत एव अघातः अविकलगः नान्यत्र । एतदुक्तं भवति - भास्वतः गोबातः एवंभूतः कालः समयश्च नादित्यस्य । अतस्त्वं चन्द्रप्रभः अभूः कुमण्डले इति सम्बन्धः ॥ ३४ ॥ सूर्यकी किरणे दुष्टजन और उलूककेलिये, अंधकाररूप परिणत होती है तथा संताप करनेवाली होती हैं परन्तु है चन्द्रप्रभ ! आपके प्रकाशमान होतेहुए आपके वचनसमूह न तो किसीको अंधकाररूप ही परिणत होते हैं और न किसी को सन्ताप देनेवाले होते हैं । सूर्य मेघोंसे छिप सकता है । आप किसी प्रकार नहीं छिप सकते अर्थात् किसी भी प्रतिपक्षी से आपका आघात नहीं हो सकता । सूर्य रात्रिके अन्तर से उदय होता है आप निरन्तर उदयरूप बने रहते हो । सूर्यका समय अस्थिर है आपका समय अर्थात् दर्शन चा मत सदा स्थिर रहनेवाला है । सूर्यका काल नियमित है आपका काल अनियमित अनन्त है । अतएव हे प्रभो आप इस पृथिवीमंडल पर सूर्य से भी अधिक सुशोभित होते हो ॥ ३४ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020405
Book TitleJin Shatakam Satikam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Jain
PublisherSyadwad Ratnakar Karyalay
Publication Year1912
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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