SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनशतक । मुरजबन्धः। यतःश्रितोपि कान्ताभिदृष्टा गुरुतया स्ववान्। वीततोविकाराभिः स्रष्टा चारुधियां भवान् ॥७॥ यतः श्रित इति-यतः यस्मात् श्रितोपि आश्रितोपि सेवितोपि कान्ताभिः स्त्रोभिः वानव्यन्तरादरणोभिः । तथापि दृष्टा प्रेक्षिता गुरुतया गुरुत्वेन गुरोभवः गुरुता तया। स्ववान् आत्मवान् ज्ञानयानित्यर्थः । किं विशिष्टाभिः स्त्रीभिः वीतचेतोविकाराभि: बीत: विनष्ट: चेतसः चित्तस्य विकारः कामाभिलाष: यासां ता: वीतचेतोविकाराः ताभि: वीतचेतोविकाराभिः । सष्टा विधाता । चायंश्च ताः धियश्च चारुधियः अतस्तासां चारधियां शोभनबुद्धीनां । भवान् भट्टारक: । किमुक्तं भवतिसमवसृतिस्थस्त्रीजनसेवितोपि गुरुत्वेन इक्षितासि यतस्तत: शोभनबुद्धीनां सष्टा कत्ती भवानव एतदुक्तं भवति ।। ७ ॥ हे भगवन् लमवसरणमें निर्विकार और शुद्ध चित्तवाली अनेक सुन्दरी देवियां आपकी सेवामें उपस्थित रहती हैं तथापि आप ज्ञानवान और महान ही माने जाते हो, अर्थात् जिनकी सेवामें स्त्रियां रहती हैं वे कभी ज्ञानी और महान् नहीं हो सकते और न वे स्त्रियां ही निर्विकार और शुद्धचित्त वाली कही जा सकती हैं, परन्त आपकी सेवामें स्त्रियां रहते हुये भी आप ज्ञानी और बड़े माने जाते हो, तथा आपको सेवामें रहते हुये भी वे स्त्रियां निविकार और शुद्ध चित्तवाली गिनी जाती हैं। हे प्रभो ! इन सब हलुओंसे निर्मलबुद्धिके उत्पन्न करनेवाले विधाता आप ही हो ॥ ७॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020405
Book TitleJin Shatakam Satikam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Jain
PublisherSyadwad Ratnakar Karyalay
Publication Year1912
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy