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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गद्य; भवति ॥ ६ ॥ स्याद्वाद ग्रन्थमाला | दिवि भवानि दिव्यानि अतस्तैर्दिव्यः इन्द्रं कृत्वा ध्वमिसित छत्र चामरैः पुनरपि दुन्दुभिस्वनैः दिव्यैरिति प्रत्येकं समाप्यते । दिवि आकाशे ऐः गतवान् इण गतावित्यस्य धो: लडन्तस्य रूपम् । विनिर्मिसानि कृतानि स्तोत्राणि स्तवनानि विनिर्मितस्तोत्राणि तेषु । श्रमः अभ्यासः । नानाप्रकारेण मधुररवेणकृतस्तवननित्यर्थः । विनिर्मितस्तोत्र श्रमः स एव दर्दुरः वाद्यविशेषः विनिर्मितस्तोत्र श्रमदर्दुरः । स एप्रामस्ति ते विनिर्मितस्तोत्र श्रमदर्दुरिणः । तैः सह जनैः समयमृतिप्रणागिरित्यर्थः । किमुक्तंभवति -- चतुर्णिकायदेवेन्द्रचकघरबलदेववासुदेवप्रभृतिभिः स्थितश्च भवान्, ततो भवानेव परमात्मा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only सह एतदुक्तं हे ऋषभदेव प्रभो ! जो पुरुष आपको नमस्कार करते हैं आप उनकी सम्पूर्ण व्याधियों को दूर कर देते हैं; आप शोक रहित हैं सर्वोत्कृष्ट विज्ञानको धारण करनेवाले हैं । हे भगवन् जब आप समवसरण में विराजमान होते हैं उस समय आप दिव्य भामण्डल, दिव्य सिंहासन, दिव्य अशोकवृक्ष, दिव्य पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, दिव्य स्वेतच्छन, दिव्यचमर, और दिव्यदुंदुभि, इन अष्ट प्रातिहार्यों से बड़े हो सशोभित होते हो । हे प्रभो ! बड़े परिश्रमसे अनेक प्रकारके स्तोत्र करनेवाले भवनवासी व्यन्तर ज्योतिष्क वैमानिक देवोंके इन्द्र, चक्रवर्ति बलदेव वासुदेव आदि समवसरण में रहने वाले प्रजाजनोंके साथ ही आप विराजमान ( शोभित ) होते हो और उन्हीं के साथ मोक्ष जाते हो । अतएव हे देव आप हो परमात्मा हो ॥ ५ ॥ ६ ॥
SR No.020405
Book TitleJin Shatakam Satikam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Jain
PublisherSyadwad Ratnakar Karyalay
Publication Year1912
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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