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________________ संयमश्रेणीनु स्तवनम् CCCESSOCCESS भावार्थ:-संयम श्रेणिनां स्तवननी संग्रह गाथा कहेतां कलश रचीये छीये तेमां प्रथम ढाले संयम श्रेणिनी षड्रस्थानक प्ररूपणा बीजी ढाले यंत्र स्थापना त्रीजीढाले अहठाण प्ररूपणा करतां मनुष्यजन्मनो फल प्राप्त कयों ॥१॥ | गाथा-शुद्ध निरंजन अलख अगोचर, एहिज साध्य सुहायो; ज्ञानक्रिया अवलंबि है। फरस्यो, अनुभव सिद्ध उपायोरे-भले० ॥२॥ | भावार्थः-शुद्ध निरावर्ण निरंजन राग द्वेष अंजन रहित अलखक लिपि अंगोचर जे स्वरुप है। |चरम चक्षुये जणाय नहीं एहवो परमात्मा स्वरुपानंद विलासी परभाव उदासी तेहिज अमारो स्वरुप अमने साध्य सुहायो रूच्युं हे आत्मन् ! हे जीव ? ज्ञानक्रिया समग्रज्ञान सम्यग् क्रिया अवलंबीने फरस्युं पाम्युं स्व स्वरूपना विचारमा मन विशराम पामे अने अपूर्वरस खाद उपजे एहवो जे अनुभव ते सिद्धनो उपायछे "नाण किरियाहि मुरको" इति वचनात् ॥२॥ **%*%*%'ASSA X शां. ३१ S4% For And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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