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________________ Shi Mahavir Jain Aradhana Kendis शांतिनाथना. ॥ ८५ ॥ www.kobahrth.org हारज, होय निरंतर रातिदिह; बीजी ए अतिशय रिद्धि; कहुं केसी परि एक जीह ॥ ३० ॥ जाणीए जिणह समीवि, सेव करं तिहुअण सिरीअ; वाटले ए समवसरणे, चार वाव हुइ जल भरीअ; विदिशिए दो दो वाव, चउ खुणे तिहां होय निपुण; आगे ए जेणे ठामे, हवउ नहीं समवसरण | ॥३१॥ अहकिम ए अहिनव देव, कोइ आवे मह इंदि वर; तोकरे ए तीणेठामे, ए सहुए नियमेण सुर; पोलिआ ए, कणय मचकंद, कुंकुअ कज्जल सरिस पुण; सोहम ए वण भवणिंद, जोइसिया चिठंति पुण ॥ ३२ ॥ कणग मयना पट पडिहार, देवी जिन गुण रंजिया ए; नित्यरहे ए विजया देवि, जया | जिता अपराजिआ ए; तुंबरु ए देव षटुंग, पुरिस नांम अथि माल सुरं, रुप्यमय ए गढ च्यार, पडि - हारुं करे सट्ट धर ॥ ३३ ॥ धन्य धन्य ए ते नरनारि, सफल जन्म तेह जाणीए ए; लोअणु ए तसु सुकयह, वाणी तास वखाणीए ए; नित्य नित्य ए नयणा णंद, दायगजे पहु पणमसिए; देखशे ए ए रिसि रिद्ध रंगे जिण गुण गायसे ए ॥ ३४ ॥ उत्तम ए ते सविखंड देसगाम आग़र नयर जिणवरु ए; जिणे ठामे करे विहार उवयार पर, हरखीओ ए चित्त अपार; दुःख भांगिडं मुज तणु ए, बुठो For Pitvale And Personal Use Only Acharya Shn Kailassagarsuri Gyanmandir पंच क० स्तवन. ॥ ८५ ॥
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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