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________________ 4 54545 अद्धताण उजे सालिअद्ध, राजादिक लिजेतो; अवर अद्ध कण एक एक, सवि कढे दीजेतो ॥२५॥ षट्मासी तिणे रोग सोग, संकट सवि भाजेतो; दारिद्र दुःख विजोग जाए, महिमा जग गाजेतो; ए आचार करू पछी ए, जिन मेहले पधारेतो; तिहुअण जीव जिणंद, एम आपो तारेतो; ॥२६॥ जिण विसामा तणे हेते, मणिमय गढ बाहेरतो; देवछंदो सुरकरे कूणे, इसाण पमुअ भरेतो; जिण जिण निय करमाणि जाणि, ए सयल पमाणंतो; सोहे चिहुं दिशि धम्म चक्का, तेजि जियभाणतो ॥ २७॥ - वस्तु-पीठ मणिमय पीठ मणीमय, करे वणरायः चिहुं आसण सहिअ तरु, देवछंद मणि रयण घडिओ; भामंडल छत्तजूअ; चर्मरइंद धय रयण जडीओ; जिणवर धम्मो वएस सुणे, अनुक्रमे प्रनषदा बार; वयर भाव भय टले, सवि कहे हर्ष अपार ॥ २८ ॥ भाषा-ठावेए पढम पायारे, वाह णसी करि पालखी; बीजी ए गढ तिर्यंच, जलयर थलयर सवि पंखीअ; त्रीजे ए देव मनुष्य, रहीय सुणे जिणवर वयण, आवे ए अधिक्षण माहि, बारह जोयण भवि जाण ॥ २९ ॥ साहणी ए चउविह देवि, उद्धठिआ जिण देसणाए; सांभली ए मन उलासे; होय नहि पुण जंतणा ए; आठे ए प्राति शा.१५ For Pavle And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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