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________________ ShiMahayeJainrachanaKendra www.kobathrtm.org Achat na m ed RECOR RECORRORSCHOCOGA रुचक परवतवासी, लेइ विजणासार॥सन्मुख विजणे विंजति वायु, करति नृत्य अपार हो साजि०॥१२॥ अलंबुसा नामें मीत केशी, पुंडरिका वली वारुणी ॥ सर्व प्रभा हासा कुमरी जे, श्री ही थुणे हेत आणी हो स० जि०॥ १३ ॥ परवत उत्तर रुचक थी आवि,प्रणमें जिनवर पाया ॥ चमर ढाले स्वपापमद गालें, टालें कर्म कषाया हो स० जि०॥ १४ ॥चित्रादेवि वली चित्र कनकनां, सौदामनी शतेरा; विदिशि रुचक हस्तमें दीवि, प्रणमें जीन शुभ लेरा हो स० जि०॥१५॥रुपशिका ने रुप सरुपा, रुपकावती तस नाम; रुचक द्वीपथी नाल शांइंनो, आविवीदारे तामहो सजि०॥१६॥जन्म महोत्सव है मलि एणी परें कीधो, सिधो आतम काजो; स्नान वीलेपन चीर पहेरावें, भूषण अंगें वीराजे हो स० जि०॥ १७ ॥ एह छपन्न दिग् कुमरि महोत्सव, करति जिनवर धाम; जोयण एक विमान शुभ विखी, पोहति निज निज ठाम होस० जि० ॥१८॥ इति श्री छप्पन्न दिग् कुमरी कामोत्सव समाप्तं ॥ दुहा ॥ चल्या सिंहासन इंद्रना, जाण्यो जन्म जिणंद; घंटा तव वजडावतो, मघवा मन आणंद ॥ १॥ हरिण गमेषी मन उलटें, मोटे शब्दपोकार; सुणी देव हरखित हुआ, करत सजाइ उदार For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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