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________________ कुमतोच्छेदन भास्कर // [67 ] कि हे देवानुप्रिय कल इस जगह एक मोटा ब्रह्मचर्य का धारण करने वाला उत्पन्न संपूर्ण ज्ञान दर्शन करके अतीत अनागत वर्तमान का जानने वाला सर्व का पूज्यनिक रागद्वेष जीतने वाला केवल ज्ञानी सर्वज्ञ सर्व को देखनेवाला त्रिभुवन का पजनीक सर्व देवता मनुष्य असुर भुवनपति का अर्चनीक वंद्यनीक पज्य नीक मत्कारणिक कल्याणकारी मंगलकारी चैत की तरह परो उपासनीक अर्थात् सेवा कर ने योग्य नाम कर्म की संपदा अतिशय कर के संयुक्त ऐसा पुरुष कल इस जगह आवेगा उसको तू बांधना अर्थात् सेवा करना प्रतीहारादिक फासु फलक सिजा संथारा पाट पाटलाडा वादी निमंत्रण करना ऐमा दो तीन बार कह कर जिस दिशा से आया था उसी दिशा को पीछा गया तिस के बाद शार्दल पुत्र आजीवक उपासक ने देवता का एसा पचन तुना तब मनमें अदबसाय उत्पन्न हुआ कि निश्चय करके मेरा धर्माचरण धर्मोपदेश का देनेवाला गोशाला मारवली पुत्र वह मोटा ब्रह्मचारी का धनी उतपन्न ज्ञान दर्शन यावत् नाम कर्म संपदा करके सहित कल यहां आवेगा तिसको में बाधूंगा और प्रतीहार फामु सिज्यादि निमंत्रण करूंगा तिसके बाद दूसरे दिन प्रभात समय श्रवणभगवंत श्री माहावीर स्वामी उस जगह समोसरा अर्थात आया तब शार्दल पुत्र को देवता पह ले कहगया था सो भगवंत आयगये सो उसके मनमें ऐना आया कि यह प्रभु तरण तारण तो नहीं परंतु प्रभु के पास में गया और धर्म का निर्णय करने लगा तब उसको केवली परुय्यत धर्म की प्राप्ती हुई लेकिन मत पक्ष को छोडकर विवेक सहित बुद्धि का विचार किया तो धर्म को पाया कदाचित विवेक सहित बुद्धि का विचार न करता और गोसाले के मत की पक्ष पकडता वा गोशाले से निर्णय करता तो आत्मधर्म की प्राप्ति कदापि न होती क्योंकि पक्षपात से धर्म नहीं मिलता यह तो चोथाकाल में भी मत पक्ष और अपने को सच्चा और दूसरे को झूठा कहते थे तो इस पंचम ATMLA
SR No.020393
Book TitleJain Ling Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages78
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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