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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे काकोलीक्षीरकाकोलीस्थाने अश्वगन्धामूलं, ऋद्धिवृद्धिस्थाने वाराहीकंदं तत्तुल्यं क्षिपेत्, मुख्यसदृशः प्रतिनिधिः. टीका-अब जो औषधि इस अष्टवर्गके अभावमें लेनेयोग्य हैं तिनकों लि. खते हैं. मेदा, जीवक, काकोली, ऋद्धि, ये औषधि अप्राप्ति होनेसें शतावरी, विदारीकंद, असगंध, वाराहीकंद, इनको क्रमसें डाले ॥ १४४ ॥ अर्थात् जैसे मेदा महामेदाकी जगह शतावरकी जड लेना और जीवक ऋषभककी जगह विदारी लेना. तथा काकोली क्षीरकाकोलीकी जगह असगंध डाले, और ऋद्धिद्धिके अभावमें वाराहीकंदकों डाले. इन चारों औषधियोंमें अष्टवर्गकेही समानगुण हैं. अथ मधुयष्टीनामगुणाः. यष्टीमधु तथा यष्टी मधुकं क्लीतकं तथा। अन्यत् क्लीतनकं तत्तु भवेत्तोये मधूलिका ॥ १४५॥ यष्टी हिमा गुरुः स्वाही चक्षुष्या बलवर्णकृत् । सुस्निग्धा शुक्रला केश्या स्वर्या पित्तानिलास्त्रजित् ॥१४६॥ व्रणशोथविषच्छर्दितृष्णाग्लानिक्षयापहा । टीका-यष्टी १, मधुक २, क्लीतक ३, क्लीतनक, दूसरा जलमें होता है. उस्कों मधूलिका कहते हैं ॥ १४५ ॥ मुलेठी शीतल है, भारी है, मधुर है, और नेत्रोंकों हित करनेवाली है, तथा बल और वर्णको बढानेवाली है, अच्छी स्निग्ध शुक्रकों करनेवाली है. बालोंकों हितकारक है, तथा स्वरकों हित है, पित्त, वात, तथा रक्त इनको हरनेवाली है ॥ १४६ ॥ व्रण अर्थात् घाव और सूजन, विष, वमन, तथा तृषा, ग्लानि, और क्षय इनकोंभी हरनेवाली है. __ अथ कंपिल्लनामानि गुणाश्च. काम्पिल्लः कर्कशश्चन्द्रो रक्ताङ्गो रोचनोऽपि च ॥ १४७॥ काम्पिल्लः कफपित्तास्त्ररूमिगुल्मोदरव्रणान् । हन्ति रेची कदूष्णश्च मेहानाहविषाश्मनुत् ॥ १४८ ॥ टीका-कांपिल्ल १, कर्कश, २, चन्द्र ३, रक्तांग ४, रोचन ५, ये कम्पीलाके For Private and Personal Use Only
SR No.020370
Book TitleHarit Kyadi Nighant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangilal Pandit, Jagannath Shastri
PublisherHariprasad Bhagirath Gaudvanshiya
Publication Year1892
Total Pages370
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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