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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६६ हरीतक्यादिनिघंटे टीका - अब अन्नोंके बनानेका प्रकार और बनेहुएके गुण परिभाषा समवाईकारणमें जो गुण मुनियोंनें माने हैं वे सब कार्यमें भी जानने चाहिये इसप्रकार परिभाषा कही है ॥ १ ॥ कहींपर संस्कारभेदसें गुणभेद होता है जैसे पुराने चावलोंका भात हलका और उसका चिडवा भारी होता है || २ || कहींपर योगके प्रभावसें गुणान्तर होजाता है कदन भारी सघृत हलका कहा है वोह हित होता है ॥ ३ ॥ अथ भातके नाम साधन और गुण भक्त अन्न अन्ध और कहींपर कहा है ॥ ४ ॥ नपुंसकमें ओदन स्त्रीलिंग भिस्सा दिविद पुल्लिंग में कहा है अच्छीतरह धोयेहुवे चावल बढायेहुवे पांचगुने पानी में पकावै ॥ ५ ॥ वोह पसेया हुवा गरम विशद गुणयुक्त भात कहा है भात दीपन पथ्य तर्पण रोचन हलका होता है || ६ || और बिनधोया तथा बिनपसेया शीतल भारी अरुचिकों देनेवाला और कफकारी होता है शिबीधान्य दाल यह दोनों रूप स्त्रीलिंग में होते हैं || ७ || दाल जलमें सिद्ध और लवण आर्द्रक हिङ्ग इनसें युक्तका सूप नामहै अब उसके गुण कहते हैं ॥ ८ ॥ दाल विष्टम्भ करनेवाली रूखी शीतल होती है विशेषसें वेछिलकेकी भूनके सिद्ध की हुई बहुत हलकी होजाती है ॥ ९ ॥ अथ खिचडीगुणाः. तण्डुला दालिसंसिना लवणार्द्रकहिङ्गुभिः । संयुक्त सलिले सिद्धा कशरा कथिता बुधैः ॥ १० ॥ कशरा शुकला बल्या गुरुः पित्तकफप्रदा । दुर्जरा बुद्धिविष्टम्भमलमूत्रकरी स्मृता ॥ ११ ॥ घृते हरिद्रासंयुक्ते माषजां भर्जयेद्वटीम् । तण्डुलांश्चापि निर्धोतान्सहैव परिभर्जयेत् ॥ १२ ॥ सिद्धयोग्यं जलं तत्र प्रक्षिप्य कुशलः पचेत् । लावणाई कहिंगूनि मात्रया तत्र निःक्षिपेत् ॥ १३ ॥ एषा सिद्धिः समानज्ञा प्रोक्ता तापहरी बुधैः । भवेत्तापहरी बल्या वृष्या श्लेष्माणमाचरेत् ॥ १४॥ बृंहणी तर्पणी रुच्या गुर्वी पित्तहरा स्मृता । टीका - दाल मिलेहुवे चावल लवण आर्द्रक हींगसें युक्त जलमें सिद्धकों पंडि For Private and Personal Use Only
SR No.020370
Book TitleHarit Kyadi Nighant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangilal Pandit, Jagannath Shastri
PublisherHariprasad Bhagirath Gaudvanshiya
Publication Year1892
Total Pages370
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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