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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २०८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे वत्सनाभः सहारिद्रः सक्तकश्च प्रदीपनः ॥ १७८ ॥ सौराष्ट्रकः शृङ्गिकश्च कालकूटस्तथैवच । हालाहलो ब्रह्मपुत्रो विषभेदा अमी नव ॥ १७९ ॥ सिन्दुवारसपत्रो वत्सनाभ्यारुतिस्तथा । यत्पार्श्वेन तरोवृद्धिर्वत्सनाभः स भाषितः ॥ १८० ॥ हरिद्रातुल्यमूलो यो हारिद्रः स उदाहृतः । यद्रन्थिः सकुकेनैव पूर्णमध्यः स सक्कुकः ॥ १८१ ॥ वर्णतो लोहितो यः स्याद्दीप्तिमान् दहनप्रभः । महादाहकरः पूर्वैः कथितः स प्रदीपनः ॥ १८२ ॥ टीका - विष गरल वेड यह विषके नामहैं उनके भेदोंकों कहते हैं वत्सनाभ हारिद्र सक्क प्रदीपन ॥ १७८ ॥ सौराष्ट्रिक शृंगिक तथा कालकूट हालाहल ब्रह्मपुत्र यह ९ विषके नाम हैं ॥ १७९ ॥ उसमें बचनागका निरूपण लाल कचनार के समान पत्ते तथा छडेके नाभिके आकर और जो एक तरफसें वृक्षकी वृद्धि होती है उस्कों बचनाग कहते हैं || १८० ॥ जो हरदीकी जडके समान होता है उसें हारिद्र कहा है जो गांठ बीचमें सक्से भरी हुईके समान होती है वोह सक्छुक है || १८१ ॥ जो रंगत में लाल होता है और अङ्गारेके समान दीप्तिमान होता है तथा बहुत दाहकों करनेवाला ऐसेकों प्राचीन लोगोंने प्रदीपन कहा है ।। १८२ ॥ अथ सोराष्ट्रिकशृंगीकालकूटहालाहलस्वरूपाणि. स्वराष्ट्रविषये यः स्यात्स सौराष्ट्रिक उच्यते । यस्मिन् गोशृङ्गके बद्धे दुग्धं भवति लोहितम् । स शृङ्गिक इति प्रोक्तो द्रव्यतत्त्वविशारदैः ॥ १८३ ॥ देवासुररणे देवैर्हतस्य पृथुमालिनः । दैत्यस्य रुधिराज्जातस्तरुरश्वत्थसन्निभः ॥ १८४ ॥ निर्यासः कालकूटोsस्य मुनिभिः परिकीर्त्तितः । सोपि क्षत्रे शृङ्गवेरे कोङ्कणे मलये भवेत् ॥ १८५ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020370
Book TitleHarit Kyadi Nighant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangilal Pandit, Jagannath Shastri
PublisherHariprasad Bhagirath Gaudvanshiya
Publication Year1892
Total Pages370
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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