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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे न्तरतः प्रशस्त सुविलिखितचित्रकर्माणि-आभ्यन्तरतःपासादस्याभ्यन्तरभागे सर्वत्र प्रशस्तानि-दर्शकजनमनो नेत्रालादकानि सुम्नानाविधस्वव्यापार परत्वेन मुष्ठु विलिखितानि-विशेषरूपेण चित्रितानि चित्रकर्माणि पशुपतिमानवाघाकाराणि यस्मिन् तत्तस्मिन् । 'नाणाविहपंचवण्णमणिरयणकोट्टिमतले' नाना विधपञ्चवर्णमणिरत्नकुटिमतले-नानाविधानि=अनेकपकाराणि पश्चवर्णानि= कृष्णनीलपीतरक्तश्वेतरूपाणि मणिरत्नानि, मणयः चन्द्रकान्तसूर्यकान्तादयः, रत्नानि इन्द्रनील-मरकत-वज्र-वैडूर्यादीनि, तेषां, कुटनं कुटः, तेन निर्वृत्तं कुटिमं तलम् अङ्गणं यस्य तत्तस्मिन्-नानामणि-विविधरत्नखचितभूमितले इत्यर्थः । 'पउमलया फुल्लबल्ली वर पुप्फजाइ उल्लोयचित्तियतले' पद्मलता पुष्पवल्ली वरपुष्प जात्युल्लोचचित्रिततले-पद्मलता: पद्मावारा लताः, पुष्पवल्लय:=पुष्पप्रधाना लताः, वराः=श्रेष्ठाः, पुष्पजाता यःमालती प्रभृतयो लताः, ताभिः तदाकाररित्यर्थः, चित्रितम् आलेखितम् उल्लोचतलं वितानतलं 'चंदरवा' इति भाषाप्रसिद्धम् यस्य तत्तस्मिन्, गजदन्तादित्वात् परनिपातः । 'वंदणवरकणगकलस चमकीला बना हुआ है (अभितरो पसत्थमुविलिहियचित्तकम्मे) इस के भीतर भाग में सर्वत्र दर्शकजनों के मन और नेत्रों को अलादकारक चित्र पशु पक्षि तथा मनुष्य आदि के आकार बने हुए है (नाणाविह पंचवण्णमणिरयणकोहिमतले) इस शयनागार की जो अंगण भूमि है वह अनेक प्रकार के कृष्ण, नील, पीत, रक्त तथा श्वेत रूप पंचवर्ण वाले चन्द्रकान्त मूर्यकान्त आदि मणियों की एवं इन्द्रनील मरकत, वज्र वैडूर्य आदि रत्नों की बनी हुई है। (पउमलयाफुल्लबल्लीवरपुप्फनाइउल्लोयचिनियतले) इसमें जो चंदरवो तना हुआ है वह पद्माकार लताओं से पुष्प प्रधानवल्लरियो से (लताओं से) एवं उत्तम२ मालती आदि की वेलों से चित्रित हो रहा है। (वंदणवरकणगकलससुविणिम्मियपडिपुंजिय(अभितरओ पसत्थसविलिहियचिनकम्म) मा भाउसमा मधे प्रेक्षठाना भन અને આંખને ગમે એવા ચિત્ર–પશપક્ષી તેમજ માણસ વગેરેની આકૃતિઓ બનેલી છે. (नाणाविहपंचवण्णमणिरयणकोहिमतले) ॥ शयना॥२y in मने तना કૃષ્ણ, નીલ, પીત, રકત તેમજ તરંગના ચન્દ્રકાંત સૂર્યકાન્ત વગેરે મણિઓ अने छन्द्रनास, भ२४त १००, वडूय कोरे २त्नानुं मनेयु छ. (पउमलया फुल्ल वल्ली वरपुप्फनोइउल्लोयचित्तियतले) मामा २ ताण यवो छ, ते કમળના જેવા આકારવાળી લતાઓ, પુષ્ય પ્રધાન વલ્લરીઓ અને ઉત્તમોત્તમ ચમેલી वगैरेनी सतामाथा व्यत्रित थ रह्यो छ. (वंदण-वर-कणगकलस-मुविणिम्मिय For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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