SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org शाताधर्म कथाङ्गसूत्रे आत्मनैव समुव्वेकवमाणे२' समुत्प्रेक्षमाणः२=पुनःपुननिरीक्षमाणः सर्वं यथा-स्थानं व्यापारयन्नित्यर्थः विहरति अवतिष्ठते ॥मू० ४॥ मूलम्-तस्स णं सेणियस्स रन्नो धारिणी नामं देवी होत्थो जाव सेणियस्स रपणो इटा जाव विहरइ ॥सू० ५॥ टीका-'तस्स णं' इत्यादि । तस्य खलु श्रेणिकस्य राज्ञा धारिणी नाम देवी-द्वितीया राज्ञी 'होत्था' आसीत् । सा कीदृशी? इत्याह-'जाव' यावत्, यावच्छब्देन-'मुकुमालपाणिपाया अहीणपंचिंदियसरीरा लक्खणवंजणगुणोववेया माणुम्माणपमाणसुजायसव्वंगसुंदरंगी ससिसोमागारा कंता पियदसणा मुख्वा करयलपरिमियतिवलियमज्झा कोमुईरयणियरविमलपडिपुण्णसोमवयणा कुंडलुल्लिहियगंडलेहा सिंगारागारचारुवेसा संगयगयहसियभणियविहियविलाससल लियसंलावनिउणजुत्तोवयारकुसला पासाईया दंसणिज्जा अभिरुवा पडिख्वा' इति पाठस्य संग्रहः। सुकुमारपाणिपादा-सुकोमलकरचरणा, अहीनपञ्चन्द्रियकरती हैं उस स्थान का नाम अन्तःपुर है। यहां जो "च" शब्द पडा है वह राज्य के और भी जो अनेक प्रकार होते हैं उन सबका सूचक है। ॥ ४॥ "तस्स णं सेणियस्स रन्नो इत्यादि टीकार्थ-(तस्स णं सेणिस्स रन्नो) उस श्रेणिक राजा के (धारिणीनामं देवी होत्था) धारिणी नाम की पट्टरानी थी। (जाव सेणिस्स रण्णो इंट्ठा जाव विहरई) यहां जो यह "यावत् शब्द का प्रयोग हुआ है वह रानी के स्वरूप वर्णनरूप इस पाठ को सूचित करता है-वह पाठान्तर इस प्रकार के है “सुकुमालपाणिपाया अहीणपंचिदियसरीरा लक्खणवंजणगुणोववेया माणुम्माणपमाणसुजायसव्वंगसुंदरंगी ससिसोमागारा कंता" आदि "इस का अर्थ इस तरह से है-रानी के दोनों हाथ और पैर विशेष નામ અન્તઃપુર છે. અહીં જે “ચ શબ્દ આવેલ છે, તે રાજ્યના બીજા અનેક પ્રકારે હોય છે, તે બધાને સૂચક છે સૂત્ર ૪ "तस्सणं सेणियस्स रन्नो इत्यादि-- 2-(तस्स णं सेणिस्स रन्नो)ते श्रेणुि शनने (धारिणी नोमं देवी होत्था) धारिणीनामे ५८राणी इती. (जाव सेणिस्सरण्णो इट्टा जाव विहरइ) महीने यावत्' શબ્દને પ્રવેગ થયેલ છે, તે રાણીને રૂપવર્ણન રૂપ જે આ પાઠાન્તર છે, તેને સૂચવે छ. ते पन्त२ 20 प्रभाएछ-सुकुमालपाणिपाया अहीणपंचिंदियसरीरा लक्खणवंजणगुणोववेया माणुम्माणपमाणसुजायसव्वंगसुंदरंगी ससि सोमागारा कंता 'आदि' माने। Aथ मा शत छ । शीनाथ ५॥ मन्ने For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy