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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७३२ ज्ञाताधर्मकथा अग्रिमचरणाभ्यां स्पृशतः 'फदेति' स्पन्दयतः ईषचलितं कुरुतः, 'खोमे ति' क्षोभयतः संचारं कारयितुं भयजनकचेष्टां कुरुतः, इममेवार्थ स्पष्टी कुर्वन्नाह - 'हेहिं घालु पंति, दंतेहि य अक्खोर्डेति' नखैरालुम्पतः नखाघातैः, कृन्ततः, दन्तैश्वाऽऽस्फोटयतः दन्ताघातैश्च विदारयतः। किंतु नो चैव खलु 'संचाएंति' शक्तः तयोः कूर्मकोः शरीरयोः 'आवाहं' आबाधाम् ईषत् पीडां वा 'पत्राहं' प्रकृष्टपीडां वा, 'बाबा' व्यावाघां विशिष्टपist वो 'उप्पादनए' उत्पादयितुं 'छविच्छेयं' छविच्छेदं नर्मच्छेदम् आकृतिविकृति वा 'करेत्तर' कर्तुम् । , यद्यपि तौ शृगालौ नखदन्त घातैः कूर्मकद्वयं पीडयितुं प्रवृत्तौ तथापि कापिक्षतिस्तयो र्नाभूदिति संक्षिप्तार्थः ॥ मृ. ७ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चरणो से उन्हें छूा । ( फंदे ति) बाद में उन्हें कुछ २ आगे सरकाया - (खो ति) उन्हें चलाने के लिये उन्होंने वहां भय जनक चेष्टा भी की (हेडिं आलुपंति दंतेहिं अक्खोडेंति नो चेवणं संचारंति) - नखों से उन्हें विदारा भी दातों से उन्हें काटा भी, परन्तु वे समर्थ नहीं हो सके ( तेसिं कुम्मगाणं सरप आवाहं वा पवाहं वा बाबा वो उप्पाएत्तए छत्रिच्छेयं वा करेन्तए) उन कूमों के शरीर में थोडी सी भी पीडा पहुँचाने के लिये प्रचल पीडा पहुँचाने के लिये विशिष्ट पीडा पहुँचाने के लिये । और न उनके छविच्छेद - चर्मच्छेद करने के लिये - आकृति को विकृत बनाने के लिये समर्थ हो सके । तात्पर्य यद्यपि वे दो श्रृाल नव और दोनों से उन दोनों कच्छपों के उपर प्रहार करने में जुट गये तो भी वे उनका कुछ भी विगाड नहीं कर सके ॥ ७ ॥ अयो. (फंदेंति) त्यार पछी तेभने थोडा भागण असेडया (खोभे ति) तेभने यसाववा भाटे तेखोखे भयोत्पादृ४ व्येष्टाओ पशु री (ण हेहिं आलुपंति दंतेहिं अक्खोडेति नो चेव ण संचाएंति) नमोथी झडवा भाटेनी तेभन दांतोथी अभी नामवांनी डीशिश पशु तेथेो व्यर्थ सामित थ. (तेसिं कुम्मगाणं सरीरस्स आबा वा बाहं वा बाबाहं वा उपपाएनए छविच्छेय वा करेत्तए) ते अयमઆના શરીરને સહેજ કષ્ટ આપવામાં વધારે કષ્ટ આપવામાં, તેમના ચ`ભાગને ફાડ-1માં અને આકૃતિને વિકૃત બનાવવામાં બને શ્રૃગાલા શક્તિમાન થઈ શકયા નહીં કહેવાના હેતુ એ છે કે અને શ્રૃગાલેએ પોતાના નખ અને દાંતેાના ભયંકર પ્રહારો કર્યા છતાં એ અને કાચબાઓને સહેજ પણ ઇજા પહોંચાડવામાં સમર્થ થઇ શકયા નહી. 1 સૂત્ર ૭ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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