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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ ४ गुप्ते द्रियत्वे कच्छपशृगालद्रष्टान्तः ७२३ णम्यो रणोयत्ययः' (८, २, ११६) इति मूत्रेण रेफण कारयोः व्यत्ययः । साम्पतं बनारसनाम्ना प्रसिद्धा, ‘होत्था' आसीत् । 'वन्नो' वर्णकः वर्णनग्रन्थः अस्या अन्यसूत्राद् विज्ञेयः। तस्याः खलु वाराणस्या नगर्याः, बहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे, ईशानकोणे गङ्गायां महानद्यां मृतगङ्गातीरहदो नाम हूद आसीत् । स कीदृश इत्याह-'अणुपुचमुजायवप्पगंभीरमीयलजले' अनुपूर्व सुनातवमगम्भीरशीतल जलः, अणुपुव्य' अनुवं-क्रमेण, 'सुजाय' सुनाताः= सुष्टु स्वयं स्वभावतः समुत्पन्नाः, 'वप' वप्राः-तटा यत्र स तथा, गम्भीरम् अगाध शीतलं जलं यत्र स तथा, अनुपूर्वमुजातवपश्चासौ गम्भीरशीतल जल इति कर्मधारयः। 'अच्छविमलसलिलपलिच्छन्ने' अच्छविमलसलिलप्रतिच्छन्न:अच्छं स्फटिक रत्नवत्स्वच्छं विमल=निर्मलं यत् सलिलं जलं तेन प्रतिच्छन्न: मतिपूर्णः, 'संछन्नपत्त पुष्फपलासे' संछन्नपत्रपुष्पपलाशः तत्र पत्राणि-कमलकुमु प्ररूपित किया है-(तेणं कालेण तेण समरण वागारसी नामं नयरी होत्या) उस काल और उस समय में वाराणसी नामकी नगरी थी (वन्नओ) इस नगरी का वर्णन अन्य दूसरे सूत्र से जान लेना चाहिये । (तीसे ण वाणारसीए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए) उस वाराणसी नगरी के बाहर ईशान कोण में (गगाए महानदीए मय गतीरइंहे नाम दहे होत्या) गंगा महानदी में मृत गंगोतीर हद नाम का हूद था। (अणुपुधसुजायवप्पगंभीरसीयलजले) यह हद क्रम २ से स्वभावतः समुत्पन्न हुए तटों से शोभित था, तथा गंभीर शीतल जल से परिपूर्ण था । (अच्छविमलसलिलपलिच्छन्ने) यही बात अच्छ विमल इत्यादि पद द्वारा व्यक्त की गई है। इसमें जो जल भरा हुआ था वह स्फटिक रत्न के समान स्वच्छ था- और निर्मल था । (संछन्न प्रभारी निरुपित येछि--(तेग कालेण तेण समएण वाणारसी नामनयरी होथा) ते णे अन ते पते पाणुसी नामै नगरी ती (वन्नओ) मा नगरीनु qणुन मीon सूत्र AA Mel से नये (तोसेण वाणारसीए नयरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसिभाए) ते वाराणसी नगीनी मा२ थान आy भी (गंगाए महानदीए मयंगतीरदहे नामं दहे होत्था) ॥ भडानीमा भृतातीर है। नामे मे धरे तो. (अणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसीयलजले) २ध धीमे धीमे पातानी भेणे मनी ये नाथी शोलतो डतो भने at शीत रथी परिपूर्ण हतो. (अच्छविमलमलिलपलिछन्ने) અચ્છવિમલ” પદ વડે એ જ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે. આ ઘરાનું પાણી मा२१ पथ्थनी म २१२७ अने निभ तु. (संछन्नपत्तपुप्फपलासे) पत्र, For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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