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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७११ अनगारधर्मामृतवाणीटीका अ ३ जिनदत्त-सागरदत्तचरित्रम् दत्तपुत्र सार्थवाहदारको 'जेणेव' यत्रैव यस्मिन्नेव स्थाने 'से' तन्मयूर्या अण्डकं वर्तते 'तेणेव' तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च 'तंसि' तस्मिन् मयूर्या अण्डके 'निस्संकिए' निश्शङ्कितः शङ्कारहितचिंतयति, 'सुवत्तए' सुव्यक्तकं परिपक्वत्वेन स्फुटतया विज्ञायमानं, खलु 'ममएत्थ' ममात्र क्रीडाकरणार्थ मयूरपोतको भविष्यतीति, कृत्वा तन्मयूर्या अण्डकमभीक्ष्ण २ पुनः पुनः 'नो उबरोइ' नोद्वत्तयति-अधः प्रदेशं नो परिकरोति यावत् 'नो टिटियावेई' न टि टि इति शब्दयंति-स्वकीयकर्णमले धृत्वा न शब्दायमानं करोति. । ततस्तदनन्तरं खलु 'से' तद्, मयूर्या अण्डकं 'अणुव्वत्तिज्जमाणे' अनुद्वय॑मानं यावत्-स्वस्थानादन्यस्मिन्स्थाने ईषदप्यचाल्यमान, 'अटिटियाविजमाणं' टि टि इति न शायमानः 'कालेणं समएणं' काले-समये प्राप्ते सति स्वयमेवात्मनैव उब्भिन्ने' उद्भिन्नः-परिपकावस्थायां स्फुटितं तदा मयूर्या वाहदारक जिनदत्त पुत्र (जेणेव से मऊरी अंडए) जहां वह मयूरी का अंडा था (तेणेव उवागच्छइ) वहा गया (उवागच्छित्ता तंसी मरी अंडयंसि निस्संकिए जाव सुवत्तए णमम एत्थ कीलावणए मऊरीपोयए भविस्सइ, तिकट्टतं मऊरी अंडयं अभिक्खणं २ नो उम्वत्तेइ) जाकर वह उस मयुरी के अंडे के विषय में निःशंकित आदिवृत्ति वाला बना रहा--और विचारने लगा-- यह मयूरी अंडक परीपक्वरूप से स्पष्ट प्रतीत होने लगा--सो इसमें मुझे क्रीडा करनेका मयूर पोतक पिष्पन्न हो जावेगा-- ऐसा विचार कर उसने उस मयरीके अंडेको बार बार उद्वतित नहीं किया यावत् उसे शब्दायमान नहीं किया--अपने कान के पास रखकर उसे टी टी इस प्रकार से वाचालित नहीं किया (तएण से मऊरी अंडए अणुवित्तिजमाणे जाव अटिटियाविज्जमाणे कालेण समएणं उब्भिन्ने) इस तरह बह निहत्तन पुत्र (जेणेव से मऊरी अंडए) wयां ते ढसनु तु (तेणेव उवागच्छइ) त्यो गयो. (उवागच्छित्ता तसि मऊरीअंडस निस्संकिए जाव सुवत्तएण मम एत्थ कीलावणए मऊरीपोयए भविस्सइ, विक त मऊरी अडयं अभिक्खण २ नो उव्यत्तेइ) त्यां ने देखना ना विष ते નિઃશંક વૃત્તિવાળ બની ગયું અને વિચારવા લાગે--આ હેલનું ઈ ડું પરિપકવ થઈ ગયું છે આમ જણાય છે. આમાંથી મારી ફ્રીડા માટે ઢેલનું બચ્ચું જન્મશે. આ રીતે વિચાર કરીને તેણે તે ઈડને સાગરદત્તના પુત્રની જેમ વારંવાર નીચે ઉપર કર્યું નહિ અને તેને શબ્દ યુકત પણ કર્યું નહિ. એટલે કે પિતાના કાનની पासे ने शमीन तेने सावीन शाह युस्त मनाव्यु नलि (तएण से मऊरी अंडए अणुन्वितिजमाणे जाव अटिटियाविजमाणे कालेणं समएण For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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