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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ ३ जिनदत्त-सागरदत्तचरित्रम् ७०९ तपः संयमाराधनस्य फलं भविष्यति न वा इत्येवं फलं प्रति शङ्कावान, भेद समापन्नः-अस्मादेव नैग्रन्थ्यप्रवचनादात्मकल्याणं स्यात् किमुत-अन्यस्मादित्येवं मतेद्वैधीभावं प्राप्तः । कलुषसमापन्ना-मतिमालिन्यमुपगतः, चिरकालपरीषहोपसर्गमह नेन किं फलं स्यादिति कालुष्यपरिणामवान् । 'से गं' स साधु खलु 'इहभवे' अस्मिन्नेवभवे चैव निश्चयेन बहूनां श्रमणानां बड़ीनां श्रमणीनां बहूनां श्रावकाणां बहीनां श्राविकाणां 'हीलणिज्जे' हीलनीयःगुरुकुलाघुद्वायतः पुनः निंदणिज्जे' निन्दनीयः-कुत्सनीयः स्यात् मनसा 'खिंसणिजे' खिंसनीयः जनमध्ये 'गरहणिज्जे' गर्हणीयः समक्षमेव च परि भवणिज्जे' परिभवनीयः अनभ्युत्थानादिभिः 'परलोए वि य णं' परलोकेऽपि च खलु इस तपसंयम की आराधना का फल मुझे प्राप्त होगा या नहीं होगा इस प्रकार फल के प्रति शंका वाले होते हैं, भेद समापन्न होते है-- इसी नैन्थ्य प्रवचन से आत्म कल्याण होगा-या अन्य किसी और से आत्मकल्याण होगा इस प्रकार के विचार से युक्त रहते है, कलुष समापन्न होते हैं--चिरकालतक परीषह और उपसर्ग के सहन करने से क्या लाभ है इस प्रकार कालुष्य परिणाम वाले होते हैं (सेणं इह भवे चेव बहे गं समणाणं वहूर्ण समणीण बहूण सावगाण यहूर्ण साविगाण हीलणिज्जे निंदणिज्जे, खिसणिज्जे गरहणिज्जे परिभवणिज्जे) वे इस भव में ही अनेक श्रमणों के अनेक श्रमणियों के अनेक श्रावकों के और अनेक श्राविकाओं द्वारा हीलनीय होते हैं निंदनीय होते हैं जन मध्यमें विसणीय होते है-समक्ष में गर्हणीय होते हैं तथा अनभ्युत्थान आदिसे परिभवनीय होते हैं । (परलोए वि य णं आगच्छइ बहूण दडणागिय અને સંયમને આરાધવાનું ફળ મને મળશે કે નહિ આ રીતે ફળ પ્રત્યે શંકાશીલ હોય છે, ભેદ સમાપન્ન હોય છે-- આ નથ પ્રવચનથી આત્મકલ્યાણ થશે કે બીજા કેઈથી આત્મકલ્યાણ થશે આ પ્રકારના વિચાર કરવા માંડે છે, કલુષ સમાપન હોય છે. લાંબા વખત સુધી પરીષહ અને ઉપસર્ગોને સહન કરવાથી શું લાભ? या प्रमाणे आयुष्य परिणामवाय छ. (से ण इहभवे चेव यहूण समणाण बहूण समणीण बहूण सावगाण बहूर्ण साविगाणं हीलणिज्जे,निंदणिज्जे खिसणिज्जे गरहणिज्जे परिभवणिज्जे) ते सा सभा घl श्रम। घgी श्रमाया વડે હીલનીય હોય છે, નિંદનીય હોય છે. સમાજમાં ખ્રિસણીય હોય છે, બધાની साभे glय खाय छ तेभर मनभ्युत्थान कोरेथी परिभवनीय हाय छ. (परलोए वि य ण आगच्छइ, बहूण दंडणाणिय जाव अणुपरियटइ) परमपमा ५ ते For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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