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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६९२ ज्ञाताधर्म कथाम नगर्या मध्य-मध्येन-मध्ये भूत्वा यत्रैव सुभूमिभागमुद्यानमस्ति यौव नन्दा नाम्नी पुष्करिणी तत्रौवोपागच्छतः, उपागत्य प्रवहणात्-रथात् प्रत्यवरोहतः-प्रत्यवतरतः वेश्यापि यानादुत्तीर्णा, ततःपश्चात, नंदा पुष्करिणीमवग़ाहंते, अवगाव-प्रवेश कृत्वा देवदत्तया साई जलमज्जनं-स्नानं कुरुतः स्नानं कृत्वा जलक्रीडां कुरुतः कृत्या स्नात्वा (स्नाती) देवदत्त या गणिकया सादमुभौ प्रत्युत्तरतः नंदापुष्क रणीतो बहिनिस्सरतः प्रत्युत्तीर्य यौव स्थूणामण्डपो वस्त्राच्छादितमंडपस्तत्रैवोपागच्छतः, उपागत्य स्थूणामण्डपमनुप्रविशतः,-मण्डपमध्ये देवदत्नया सई तो सार्थवाहदारको प्रवेशं कुरुत इत्यर्थः। अनुपविश्य सर्वालंकारविभूषितौ वस्त्रा. उस रथ पर आरूढ हुए (दुरुहिता चंपाए नयरोए) आरूढ होकर चंपा. नगरी के (मज्झ मज्झेणं) ठीक बीचोबीच से होकर (जेणेव सुभूमिभागे उजाणे) जहां सुभूमि भाग नाम का उद्यान और उसमें भी (जेणेव नंदा. पुक्खरिणी) जहां नंदा नाम को पुष्करिणी (बावडी) थी (तेणेव उवागच्छति) वहां पहुंचे। (उवागच्छिता पवहणातो पच्चोरुहंति) पहुँच कर फिर वे रथ से नीचे उतरे। (पच्चोरूहित्ता नंदापोक्रवरिणीं ओगाहिति) उतर कर नंदा पुष्करिणी में प्रवेश किया (ओगाहित्ता जलमजणं करेंति) प्रवेश कर वहां उन्होंने स्नान किया (करित्ता जलकीडं करें ति) स्नान करके जलक्रीडा की (करित्ता हाया देवदत्ताए सद्धि पच्चुत्तरंति) जलक्रीडा करके वे दोनों देव दत्ता गणिका के साथ उस पुष्करिणी से बाहर निकले (पच्चुत्तरित्ता जेणेव थूणामंडवे तेणेव उवागच्छंति) बाहिर निकल कर जहां वह . स्थूणामंडपवस्त्राच्छादितमंडप-था-वहाँ आये-(उवागच्छिता थूणामंडवं अणुपविसंति) सवार थया. (दरूहित्ता चपाए नयरीए) सवा२ ..धने पानगीनी (मज्झ मझेणं) ही पथ्ये थधन (जेणेव मुभूमिभागे उज्जाणे) यां सुभूमिमा धान तेभ (जेणेव नंदा पुक्खरिणी) ज्यां नहा नामे पु२ि७1) (भ भी डाय तेवी २१२७ पाएनी नानी सुंदर वाव) ती (तेणेव उवागच्छति) त्यां पडाया. (उवागच्छित्ता पवहणातो पच्चोरूहति) पडत्याने ते २थमाथी नीये ता. (पच्चोरुहिता नंदा पोखरिणी ओगाहिति) तारीने नहा पुरि (44) मा पेह। अने (ओगाहित्ता जलमज्झणं करेंति) प्रवेशीन तेमासे स्नान ध्यु (करिता जलकोई कति) स्नान ४शन तयाये स अ ४२१. (करित्ता हाया देव. दत्ताए सद्धि पच्चुत्तरंति) ८ | रीने तेसो भने पत्ता लानी सार्थ ४०४२मांथा SIR नीsuया. (पच्चुत्तरित्ता जेणेव थूगा मंडवे तेणेव उवागच्छंति બહાર નીકળીને જ્યાં સ્કૂણું મંડપ (વસ્ત્રથી આચ્છાદિત મંડ૫) અર્થાત્ તંબૂ હતું ત્યાં ગયાં. (उवागच्छित्ताथूणामंडवं अणुपविसंति) त्याने ते भयमा प्रविष्ट थया. For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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