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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६७३ अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ. ३. मयूराण्डवर्णनम् नगर्या यहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे सुभूमिभागं नामोद्यानमासीत् तत् कीदृशमित्याह--'सयोउयपुप्फफलसमिद्धे' सर्वत्तकपुष्पफलसमृद्धम्-- वप्तन्तादिवानुननित पुष्पफलादिसम्मन्नमू, सुरम्यम्-अतिशयरमणीयं, नन्दनवनवत् 'सुहसुरभिसीयलच्छायाए' शुभसुरभि-शीतलछायया-तत्र 'सुह' शुभा-शोभना 'सुरभि' सुगन्धिः 'सीयलं' शीतला च या छाया तया 'समणुबद्धे' समनुबद्धम्-युक्तम्, तस्य खलु सुभूभिभागस्योद्यानस्य 'उत्तरओ' उत्तरतः-उत्तरदिशायामित्यर्थः 'एग देसंमि, एकदेशे-एकस्मिन् 'एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं इत्यादि । टीकार्थ-( जंबू ! एवं खलु) हे जंबू ! तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-( तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था ) उस कालमें उस समयमें चंपा नामकी नगरी थी (वन्नओ) इसका वर्णन पहिले किया जा चुका है। (तीसेणं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसिमाए सु. भूमिभाए नाम उजाणे होत्थो) उस चंपा नगरी के बाहर ईशान कोणमे सुभूमिभाग नामका उद्यान था । (सम्बोउय पुप्फफ लममिद्धे सुरम्मे नदणवणे इव) यह समस्त ऋतुओं की शोभा से समृद्ध था-आर्थात् समस्त ऋतु संबन्धी फलपुष्पादिकों से यह सम्पन्न था, अतिशय रमणीय था। नंदनवन के समान यह (सुहसुरभि सीयलच्छायाए समणुबद्धे ) शुभ, सुरभि और शीतल छायासे युक्त था। (तस्स ण सुभूमिभागस्स उजाणस्स उत्तरओ एगदेसंमि मालुयामच्छए वन्नी) उस सुभूमिभाग उद्यान की 'एवं खलु जंबू ! तेणं कालेग' इत्यादि ॥ टी -(जबू ! एवं खलु) भू! तभा प्रश्नावासमाप्रमाणे छ-(तेण. कालेग तेण समएणचंपा नाम नयरी होत्था) ते णे भने तेसभये नामे नगरी ती. (वन्नओ) ते नगरीनु पणुन ५i ४२वामा सायु छ. तीसेणं गए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए सुभूमिभाए नामं उजाणे होत्या) ते पानाशनी मडार शान अशुभ सुभूमिमा नामे उद्यान तो (सब्बोउयपुष्फफलसमिद्धे सुरम्मे नंदणवणे इव) तेधान समस्त ऋतुमानी શોભાથી યુક્ત હતું એટલે કે બધી ઋતુઓનાં ફળ અને પુષ્પથી તે સંપન્ન હતું भने ते म २भनीय तु. नन बननी म ते (सुहसुरभिसीयलच्छायाए समणुबद्ध) शुभ सुनि भने शीत छायावा तु. (तस्सण मुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उत्तरओ एगदेस मि मालुयाकच्छए वन्नओ) ते सुभूमि लाn Gधाननी ઉત્તર દિશાએ એક તરફ માલુકા કચ્છનામે વન હતું. તે માલુકા કચ્છનું વર્ણન For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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