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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५२ ज्ञाताधर्म कथासूत्र नो सत्करोति, नो सम्मानयति, नो अभ्युत्तिष्ठति, नो शरीर कुशलं पृच्छति, अनाद्रियमाणा, अपरिजानन्सी असत्कुर्वन्ती, असम्मानयन्ती. अनभ्युनिष्ठन्ती, शरीर कुशलमपृच्छन्ती 'तुसिणीया' तूष्णीका=मौनावलम्बिनी 'परम्मुही' पराङ्मुखी = प्रतिकूला मुखं परावर्त्य संतिष्ठतीत्यर्थः । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहो भद्रां भार्यामेवमवादीत - किष्ण' कि खलु किमर्थ तत्र हे देवानुमिये ! न तुट्ठी वा' न तुष्टिः = सन्तोषो न वर्तते न हो वा नानन्दो वा यन्मया स्वकेन= स्वकीयेन अर्थसारेण = बहुमूल्य रत्नादि दानेन 'रायकजाओ राजकार्यात् = राजसङ्कटाद् आत्मा खलु विमोचितः ? | सन्मुख नही गई-- उठी नहीं, और न उसने उसकी कुशल क्षेम पूछी । (अणादाय माणी, अपरिजानमाणी, असक्कारेमाणी, असम्माणेमाणी, अणभुट्टेमाणी, सरीरकुसलं अपुच्छमाणी तुसिणीया, परम्मुही संचिgs) इम तरह अपने प्रति अनादर का भाव प्रदर्शित करने वाली अपना-स्वागत नहीं करने वाली सरकार नहीं करने वाली सन्मान नही करने वाली, उठकर अपने सन्मुख नहीं आनेवाली, शरीर की कुशल क्षेम नही पूछने वाली ऐसी भद्रासार्थवाही को चुपचाप मुँह फेरकर बैठी हुई जब धन्य सार्थवाहने देखा तो (तरणं से घण्णे सत्थवाहे भा भारियं एवं वयासी) उस धन्य सार्थवाह ने उस भद्रा भार्या से इम प्रकार कहा- - (किष्णं तुब्भं देवाप्पिए ! न तुट्टी वा न हरिसे वा, नाणंदेव मसणं अत्थसारे णं रायकज्जाओ अप्पाणं त्रिमोइए) हे देवानुप्रिये ! क्या तुझे सन्तोष नहीं हुआ है, हर्ष नहीं हुआ है, जो मैंने बहु मूल्य Tafter अर्थसार देकर राज्य सकट से अपने को मुक्त करवाया है ભેટમાં અનેક વસ્તુઓ આપીને સન્માન કર્યું નહિ. ભદ્રા ભાર્યા તેમની સામે ગઇ નહિ, ઊભી પણ ન હાતી થઈ તેમ જ તેણે શેઠની કુશળ ક્ષેમ વિશેના પ્રશ્ન કર્યા नतो. (अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी, असकारेमाणी, असम्माणेमाणी, अणभुट्टेमाणी, सरीरकुसल अपुच्छमाणी तुसिणीया परम्मुडी, संचिह्न) આ રીતે ધન્ય સા`વાહે તેમના પ્રત્યે અનાદરના ભાવ બતાવનારી, સ્વાગત નહિ ક નારી, સત્કાર નહિ કરનારી, સન્માન નહિ કરનારી, ઊભી થઈને સામે સત્કાર માટે નહિ આવનારી, તેમના શરીરની કુશળ અને ક્ષેમની વાત નહિ પૂછનારી पोताना पत्नी लट्रा सार्थवाहीने हा त्यारे (तएण से घण्णे सत्यवाहे भ भारियं एवं वयासी) तेभाणे लद्रा सत्थवाहीने उछु (किष्ण तुब्भं देवाणुपियाए ! न तुट्टी वा न हरिसेवा नाणंदेवा जं मए सएणं अत्थसारेण रायकजाओ अपाण विमोइए) हे हेवानुप्रिये ! शुं तने संतोष थयो नथी, में ત્નો વગેરે મિતી દ્રવ્ય બહુ આપીને રાજ્ય સંકટથી મુક્તિ મેળવી છે. શું તને For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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