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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४२ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे विपुलोद अशनपान खाद्यस्वाद्यात् संविभागम् = अंशरूपेग पृथकरणं कुर्याम् तदाऽहं युष्माभिः सार्द्धमेकान्तमपक्रमामि । ततः खलु तदनु स धन्यः सार्थवाही विजयमेवमवादीत् अहं खलु तुभ्यं तस्माद् विपुलाद् अशनपान खाद्य-स्वाद्यात संविभागं करिष्यामि । ततः खलु स विजयी धन्यस्य सार्थवाहस्यैतम्= संविभागस्वीकरणरूपमर्थ 'पडिसुणेइ' प्रतिश्रृणोति = स्वीकरोति । ततः खलु= अशनादि संविभागस्वीकारानन्तरं स विजयों धन्येन सार्द्धमेकान्तमवक्रामति, श्रेष्ठी उच्चारस्रवणे परिष्ठापयति, परिष्ठाप्य 'आयंते' आचमितः = कृतशुद्धिकः 'चोक्खे' चोक्षः स्वच्छः 'परमसुइभूए' परमशुचीभूतः = प्रक्षालितमुखहस्तः सन् तदेव स्थानम् 'उनसंकमित्ता' उपसंक्रम्य = संप्राप्य 'विहरइ' विहरति = तिष्ठति । ततः खलु = इतश्च सा भद्रा 'कल' कल्ये= द्वितीय दिवसे अशनादिरूप चतुर्विध आहार में से विभक्त मुझे खानेको दो अर्थात् - उसमें मेरा विभाग रक्खो - तो मैं तुम्हारे साथ एकान्त में चलता हूँ। ( ं से to सन्धवाहे विजयं एवं क्यासी- अहण्णं तुब्भं तओ विपुलाओ असण४ सिं भागं करिस्सामि तण से विजए घण्णस्स सत्यवाहस्स एयम पडिसुणे) तब धन्य सार्थवाहने उस विजय चौर से इस प्रकार कहा- हां मैं तेरे लिये उस विपुल आहार में से विभाग कर दूंगा। इसके बाद उस विजयने धन्य सार्थवाह के इस अर्थ को कहने को मानलिया - (तरण से विजए घष्णणं सर्द्धि एते अवक्कम उच्चारपासवणं परिद्ववेद) बाद में वह विजय धन्य सार्थवाह के साथ एकान्त में गया वहाँ जाकर सेठ धन्यने उच्चार और प्रस्रवण की परिष्ठापन की । (परिवित्ता आयंते चोक्खे परमसुईभूए तमेव ठाण उवसंकमित्ताविहर) परिष्ठापना के बाद आचमन कर धन्यसार्थवाह જો તમે હવે તમારા માટે આવતા अशन, धान, વગેરે ચાર જાતના આહારમાંથી હિસ્સો મને પણ આપવાની બાંહેધરી આપે તે હું તમારી સાથે अंतमां भाववा तैयार छु (तएण से धणे सत्थवाहे विजय एवं वयासी अण्णं तुग्भं तओ विपुलाओ असण ४ संविभाग करिस्सामि तएण से विजय रणस्स सत्यवाहस्स एयम पडिसुणेड) सेना नवामभा धन्य સા વાહે વિજય ચોરને કહ્યુ~સારું મશન, પાન, વગેરે ચાર જાતના વિપુલ આહારમાંથી તને પણ ભાગ આપીશ. ત્યાર પછી વિજય ચોરે ધન્ય સાÖવાહની वात स्वीरी (तएण से विजए धणे सर्द्धि एगते अवकमेइ उच्चारपासवण परिवे) मने ते धन्य सार्थवाहनी साथै मेअंतमां गये. त्यां भ्हाने धन्य सार्थवाहे हरयार भने प्रश्नवणुनी परिष्ठापना उरी. (परिवित्ता आयते चोक्खे परमसुईभूए तमेव ठाण उवसंकमित्ता विहरइ) परिष्ठापना पछी ધન્ય સાÖવાહે શુદ્ધી કરી અને આ પ્રમાણે તેએ શુદ્ધ અને નિ`ળ થઇને ફરી पोताना जाने न्यावी गया. (तरण सा भद्दा कल्लं जात्र जलते विलं असण For Private and Personal Use Only 31
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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