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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ज्ञाताधर्मकथाजस्त्रे माणेभ्यः ववरोवई' व्यपरोपयात-पृथक्कराति म र त त्यथः, जोविता द्वयपरोप्य आभरणालङ्कारान् गृह्णाति, गृहीत्वा देवदत्तस्य दारयकस्य शरीरं 'निप्पाणं' निष्पाणम् श्वासोच्छासादि पाणरहितं 'निच्चे,' निश्चेष्टं जीपनव्यापार रहितं जीवविप्पजड़े 'जीवविप्रत्यक्तम् आत्मप्रदेशरहितं देवेदत्तदारकशरीरं भग्नरुपे प्रक्षिपति, प्रक्षिप्य यत्रैव मालुकाकक्षकस्तौवोपागच्छति, उपागत्य मालुका कक्ष कमनुप्रविशति, अनुपविश्य 'निच्चले' निश्चलः गमनागमनादिवर्जितः 'निष्फंदे' निष्पन्दः हस्तपादाद्यवयवचलनरहितः 'तुसिणीए' तूष्णीका वचनव्यापारर. हितः सन् दिवसंतदिनं 'खवेमाणे' क्षपयन् गमयन् तिष्ठति ॥सू० ७|| भागवण, तेणेव उवागच्छइ) निकल कर वहां गया कि जहां वह जीर्ण उद्यान और भग्न प था। (उवागच्छित्ता देवदिन्नं दारयं जीवियाओ ववरोवेइ) वहां पहुँच कर उसने उस देवदन दारक को मार डाला। (ववरोवित्ता आमरणालंकारे गिण्डइ, गिण्हित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरगं निप्पाणं निच्चेटु जीवियविप्पनढं भग्गकूत्रए पक्खिवइ) मार कर उसके ममम्तआभूषण उतार लिये--और देवदत दारक के उस निष्माण, निश्चेष्ट तथा आत्मप्रदेशों से विहीन बने हुए शरीर को भग्नकूप में डाल दिया। (पक्खि वित्ता जेणव मालुया कच्छए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता मालुया कच्छ ए अणुपविसइ, अणुपविमित्ता निच्चले निष्फंदे तुसिणीए दिवस खवेमाणे चिइ) डालकर फिर वह जहां मालुका कक्ष था वहाँ आया। आकर वह उसमें प्रविष्ट हुआ--और उसी मे चुपचाप घुसे उपने निश्चल और निश्चेष्ट होकर वह अपना दिन व्यतीत--किया। ॥मूत्र ७॥ देवदिन्नं दारय जीवियाओ ववरोवेइ) त्यां पडाचीन तेणे मा हेपत्तने भारी नाभ्यो. (ववरोवेत्ता आभरणाल कारे गिण्डइ गिण्हित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स मीरगं निप्पाण निच्चेटुं जीवियविषजढं भगकूवए पक्खिवह) भारीने તેનાં બધાં ઘરેણુઓ તેણે ઉતારી લીધાં અને તેના નિષ્ણાણ, નિલેષ્ટ તેમજ આત્મ प्रदेश २ ०२ने मन पामा ३ दी. (पक्खि वेत्ता जेणेव मालुया कच्छए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता मालयाकच्छयं अनुपविसइ अणुपविसित्ता निच्चले निष्फंदे तुसि गीर दिवसं खवेमाणे चिटइ) (ફેકીને તે જ્યાં માલુકા કક્ષ હતું ત્યાં ગયે. જઈને તેમાં પ્રવેશીને તેણે ચૂપ ચાપ નિશ્ચળ અને નિશ્રેષ્ટ થઈને પિતને દિવસ પસાર કર્યો. એ સૂત્ર છે ! For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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