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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञाताधर्म कथाङ्गत्र नयन्ति । एवं संप्रेक्षते, संप्रक्ष्य कल्ये यावज्वलति यौन धन्यः सार्थवाहस्तत्रीबोवाग छति, उपागत्य धन्यं सार्थवाह मेवमयादीत एवं खलु देवानुप्रियाः। मम तस्य गर्भस्य (प्रभावेण) यावत् व्यपनयन्ति, तद् इच्छामि ग्वालु देवानुप्रियाः ! भवद्भिर भ्यनुज्ञाता सतो याद् विहाँ म। यथा सुखं देवानुपिये!षा प्रतिवन्धं कुरु ततः खलु स हुए अशन पानादिक चारों प्रकार के आहार करती हैं-दूसरों को कराती हैं-इस तरह जो अपने दोहले की पूर्ति करती हैं । (एवं संपेहेइ) इस प्रकार उस दोहले में उसने विचार किया (संपेहिता कल्ल जाव जलंते जेणेत्र सत्यवाहे तेणेव उवागच्छइ) विचार करके फिर वह प्रातः होते ही जब मूर्य चमकने लग गया-तव जहां धन्य सार्थवाह था वहां गई। (उवागच्छिता धणं सत्यवाहं एवं वयासी) जाकर उसने धन्यसार्थवाह से इस प्रकार कहा (एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम तस्स गभस्स जाव विणेइ-तं इच्छामि ण देवाणुप्पिया तुम्भेहिं अभणुन्नाया समागी जाव विहरित्तए) हे देवानु प्रिय ! मुझे उस गर्भ के प्रभाव से इस प्रकार का दोहला उत्पन्न हुआ है कि जो माताए एसा २ करती हैं और अपने गर्भके मनोरथ की पूर्ति करती हैं वे धन्य हैं कृत लक्षणाहैं इत्यादि। अतः मैं आपके द्वारा आज्ञापित हो कर इसी रूप से अपना दोहलासंपन्न करना चाहती हूँ (इस प्रकार उसने अपना सब विचार धन्य सार्थवाह से निवेदित कर दिया) । धन्य सार्थवाहने उसका ऐसा अभिपाय सुनकर उमसे कहाપાન વગેરે ચારે જાતનો આહાર પોતે કરે છે. અને બીજાઓને કરાવે છે આ પ્રમાણે જે માતા પિતાના દેહદની પૂતિ કરે છે તે માતાઓને ધન્ય છે (एव मंपेहेइ) 0 प्रमाणे तेथे पोताना होड भाटे पिया२ ज्यो. (संपेहित्ता कल्लं जाव जलंते जेणेव सत्यवाहे तेणेव उवागच्छइ) વિચાર કરીને તેણે સવારમાં જ્યારે સૂરજ પૂર્વ દિશામાં પ્રકાશિત થયો ત્યારે જ્યાં धन्यवार्थ वाड या तो त्या 8. (उवाच्छिता धणं, सत्यवाहं एवं बयासी) त्याने तेथे धन्य साथ पाइने २L प्रमाणे ह्यु-(एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम तस्स गन्भस्स जाव विणेइ तं इच्छामि गं देवाणुप्पिया तुम्भेहिं अम. गुन्नाया समाणी जाव विहरित्तए) के आनुप्रिय ! गर्भावस्थाने दीप भने દેહદ થયું છે. જે માતાઓ આ જાતનું પિતાનું દેહદ પુરું કરી શકે છે. પિતાની ગર્ભેચ્છા પૂરી કરે છે તે માતાઓ ખરેખર ધન્ય છે. અને કૃતલક્ષણ છે વગેરે વગેરે. એટલા માટે હું આપની આજ્ઞા મેળવીને આ રીતે જ મારું દેહદ પુરું કરવા ઈચ્છું છું. (આ રીતે તેણે પિતાની ઈચ્છા ધન્ય સાર્થવાહની સામે પ્રકટ કરી). घन्य साथवा तेनी वात सजाने ४यु (अहासुई देवाणुप्पिया ! मा पडि For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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