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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगरधर्मामृतवर्षिणी टीका. अ. २ सू. ५ भद्दासार्थवाहीविचारः S For Private and Personal Use Only ६०१ धूपं दहति दग्ध्वा जांनुवादपतिता 'पंजलिउडा' प्राञ्जलिपुटा=संयोजितकरद्वया एवमवादीत - 'यदि खलु अहं दारकं वा दारिकां वा 'पयायामि= प्रजनयामि=प्रजनयिष्यामि तदा खलु अहं यागं च यावत् अनुग्रामि = संबद्धविष्यामि ! 'तिकटु' इति कृत्वा = इत्युक्त्वा उपयाचितं करोति. कृत्वा यत्र पुरकरिणी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य विपुलमानं पानं खाद्य' स्वाद्यमास्वादयन्ती यावद् विहरति । तदनन्तरं सा 'जिमिया' जिमिता= भुक्का यावद् 'सुईभूया' शुवीभूता=प्रक्षालित हस्तमुखा सती यौत्र स्वकं चंदनादि गंध द्रव्यों को रखा अथवा उनके ऊपर चन्दनादि तेल को छिड़का अगरतगर आदि सुगंधिद्रव्यों का उन्हें समर्पण किया विलेपनद्रव्य उन पर लगाया । (करिता जाव धूवं डहइ डहिता जाणुपायपडिया पंजलिउडा एवं वयासी) इन सब वस्तुओं का समर्पण करने के बाद फिर उसने वहां धूप को जला कर फिर वह उनके समक्ष दोनों घुटने टेक कर नीचे जमीन पर झुक गई और दोनों हाथ जोड कर इस प्रकार प्रार्थना कलने लगी (जइणं अहं दारगं वा दारिगं वा पायायामि तो णं अहं जायं च जात्र अणुड्ढे मि तिक उचाइयं करेइ) यदि मैं पुत्र अथवा पुत्री को जन्म दूंगी तो आपकी सेवा पूजा करूंगी यावत आपके कोष की वृद्धि करूंगी - इस प्रकार उसने प्रार्थना रूपमें मनौती मानता मनाई (करिता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता विउलं असणं ४ आसाएमाणी जाव विहरइ ) मनौती मना कर फिर वह उस पुष्करिणी पर आई आकर वहां उसने उस विपुल खाने पीने की सामग्री का आहार किया (जिमिया जाब सुईभूया जेणेव सएगिहे तेणेव उवागया) आहार कर के फिर उसने हाथ કર્યું. અગર તગર વગેરે સુગંધિત દ્રવ્ય અણુ કર્યાં. અને સુગ ંધિત લેપોના લેપ કર્યાં. (करिता जाव धूवंडहह बहित्ता जाणुपायपडिया पंजलिउडा एवं वयासी) આ બધી વસ્તુઓનું સમર્પણ કરીને તેણે ધૂપસળી સળગાવી અને સળગાવીને તે તેમની સામે અને ઘૂંટણા ટેકીને નીચે પૃથ્વી ઉપર નમી અને બંને હાથ જોડીને આ પ્રમાણે आर्थना ४२वा लागी (जइणं अहं दारणं वा दारिगं वा पायायामि तोणं अहं जायं च जाव अणुवमिति उवाइयं करेड़) ने हुं पुत्र के थुत्रीने ४न्भ आयीश તો આપની સેવા-પૂજા કરીશ અને આપના નિધિની અભિવૃદ્ધિ કરીશ. આ રીતે તેણે आर्थना उरतां मानता राणी करिता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता विउलं असणं ४ आसाएमाणी जाव विहरह) भानता भानीनीने ते पुष्करिणीना अंडे यात्री भने भ्यां तेथे गूण ४ सारी पेठे लोन यु. ( जिमिया जाव सुईभूया जेणेव सए गिहे तेणेव उवागया) आहार वगेरे उरीने तेथे हाथ
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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