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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ.२ स. ४ विजयतस्करःवर्णनम् ५८५ रूपेषु 'विहुरेसु' विधुरेषु व्याकुलावस्थारूपेषु 'वसणेसु' व्यसनेषु-विपत्सु 'अब्भुदरसु' अभ्युदयेषु राज्यलक्ष्म्यादिप्राप्तिरूपेषु 'उस्सवेस' उत्सनेषु विवाहादिप पङ्गरूपेठ पपरेसु' प्रपवे'-पुवादिजन्मोत्सवेषु 'तिहिमु' 'तिथिसांवत्सरिकादिरूपासु 'छणेसु' क्षणेषु आनन्दजनकल्यापाररूपेषु 'जन्नेसु' यज्ञेषु नागाद्युत्मवेषु 'पवणीसु' पर्वणीषु-कार्तिकपूर्णिमादिपर्वतिथिषु 'मत्त. पमतम' मत्तप्रमत्तस्य तत्र 'मन' उन्मत्तः पमत्त' प्रमत्तः-प्रमादवान् यःस तस्य 'विवि तस्स' विक्षिप्तस्त्र प्रयोगविशेषेण भ्रान्तचित्तस्य 'वाउलस्स' वातुलस्य वातरोगयुक्तस्य अन्यमनस्कस्य वा 'मुहियस्स' मुखितस्य' मकलेन्द्रियानुकूल विषयप्राप्तत्वात्सुखमनस्य 'दुविखयस्स' दुखितस्य इष्ट वियोगानिष्टसंयोगादिना दुःखनिमग्नस्य 'विदेसत्थस्स' विदेशस्थस्य परदेशस्थितस्य 'विष्यवसियस' विप्रोषितस्य-इष्टजनवियोगिनः इत्यादि बहुजविहरेमु) व्याकुल अवस्था में होना था (वागेमु) किप्ती और विराति से ग्रस्त होता था उस समय में तथा (अन्भुइएसु) राज्यलक्ष्मी आदि को पाप्तिरूप उत्सवों में (उस्सवेमु य पसवे सुय तिहीसु य छणेसुय जन्नेसु य पवणीसु य) विवाह आदि प्रसंगो में पुत्रादि जन्मोत्सवों में सांवत्सरिक तिथियों में, आनंद जनक व्यापाररूप क्षणों में नागादि उत्सवरूप यज्ञों में कार्तिक पूर्णिमा आदिरूप पर्वतिथियों में. (मत्त-पमत्तस्स विक्वित्तस्स वाउ. लस्स य मुहियरस य दुक्खियस्स य विदेसत्थस्मय विप्पसियस्स य) जय कोई जन मत्त हो जाता था प्रमादवशंगत हो जाता था, प्रयोग विशेष से भ्रान्त चित्त बन जाता था, वातव्याधि से युक्त हो जाता था। या अन्यमनस्क हो जाता था, सकल इन्द्रियों के अनुकूल विषयों की प्राप्ति से आनन्द युक्त बन जाता था. इष्ट पियोग अनिष्ट संयोग आदि से दुःख. (वसणेसु) मी माइतमा इसायो २३तो, ते समये तेम (अब्भुदएम) Norय सभी पोरेनी प्राति३५ उत्सवोमा (उस्सवेसु य पसवेसु य तिही य छणेस य जन्नेम य परणी य) सन वगैरेनी प्रसगोभी, पुत्र वगेरेनामीત્યમાં, સાંવત્સરિક તિથિમાં, આનંદની ક્ષણમાં, નાગ વગેરેના ઉત્સવ રૂપ यज्ञोमांति पूनम वगेरे ३५ ५५ तिथियामां (मतमतस्स विक्खियस्सउना लस्स य मुहियस्स य दुक्खियस्स य विदेसत्थस्स य पयत्तस्स विखयम्सविप्पवसियम्स य) જ્યારે કે માણસ ગાંડે થઈ જતે, પ્રમાદી થઈ જતે, (તત્ર મંત્રના) પ્રગ વિશેષથી બ્રાંતચિત્ત થઇ જત, વાતના રોગથી પીડિત થઈ જતે, શૂન્ય મનસ્ક થઈ જતે, બધી ઈન્દ્રિયોને સુખ પ્રાપ્તિ થાય એ સંગ થતાં જ્યારે કોઈ આનંદ મગ્ન થઈ જત, ઈષ્ટ વિગ તથા અનિષ્ટ સંગ વગેરેથી દુઃખી થઈ જતું, પરદેશમાં For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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