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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाताधमाके सूत्रे 'सणियंर' शनै शनैः 'दुरुहिता' दुरुह्य आरुह्य स्वयमेव 'मेहघणसन्निगासं' मेघ. घन सन्निकाश-धनीभूत मेघसदृशं श्यामं 'पुढवीसिलापट्टयं' पृथिवी शिलापट्टकपृथिवी शिलारूपं पट्टकम् आसनरूपमित्यर्थः प्रतिलेख्य 'सलेहणाझसणाए झूसि. यस्स' संलेखनाजोषणया जुष्टस्य तत्र-संलेखना-संलिख्यते कृशीक्रियते शास्त्रविधिना शरीरकषायादिरनया इति संलेखना-तपोविशेषः, तस्याः जोषणा=सेवा, तया जुष्टस्य 'भत्तपाणपडियाइक्खियस्स' भक्तपानप्रत्याख्यातस्य% परिवर्जितभक्तपानस्य 'पायवोधगयस्स' पादपोषगतस्य, पादपोवृक्षस्तत्साहश्यमुपगतः तद्वन्निश्चल इत्यर्थः तस्य 'कोलं अणवखमाणस्स' कालमनवकाङ्. क्षतः मरणमनिच्छतः मम वितुं श्रेयः, इति संप्रेक्षते विचारयति संप्रेक्ष्य-विचार्य कल्ये प्रदुर्भूतप्रभातायां यावत्-ज्वलति-उदिते सूर्ये यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरस्तत्रैवोपागच्छति उपागत्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिकृत्वःयं दुरुहित्ता सयमेवं मेहघणसंनिगासं) राजगृहनगर के पास रहे हुए विपुल नामके पर्वत पर धीरे२ चढकर के स्वयम् मेघ के समान श्याम (पुढविसिलापट्टय) पृथिवी शिलारूप पटककी (पढिले हेज्जा सलेहणा असणाए झुसियस्स) प्रतिलेखना करूँ। प्रतिलेखना करके फिर मैं संलेखना को प्रीतिपूर्वक सेवन करने के लिये (भत्ताणपडियाइक्खियस्म) भक्तपान का प्रत्याख्यान कर। बाद में (पायवोवगयस्स कालं अणवकंखमाणस्स विहरिए) मैं पादपोपगमन संथाराको काल की-मरण की-इच्छा न करता हुआ धारण करूँ। (एवं संपेहेइ) इस प्रकार मेधकुमार महामुनिराजने विचार किया (संपेहिता कल्लं पाउप्पभायाए ग्यणीए जाव जलं ते जेणेव समणे भगवं महा. वीरे तेणे उबागच्छइ) विचार करके फिर वे प्रातःकाल होते ही जब कि सूर्य प्रकाशित हो चुका था श्रमण भगवान् महावीर के पास पहुचे પાસેના વિપુલ નામના પર્વત ઉપર ધીમે ધીમે ચઢીને ધનીભૂત થયેલા મેઘની જેમ શ્યામ (पुढविसिलापट्टयं) पृथ्वी शि॥३५ पट्टनी (पडिले हेज्जा संलेखणा झूस. णाए झूसियम्स) प्रतिमना ४. प्रतिवेमन! या माद संबेगनानु प्रीतिपू' सेवन ४२१! भाटे (भत्तमाणपडियाइक्खियस्स) सतपान प्रत्याज्यान (निषेध) ४२ ६. त्या२ पछी ( पायवोवगयस्स कलं अणवकखमाणस्स विहरित्तए) हाण (मृत्यु) नी अपेक्षा नरामतपापागमन संथाराने धा२ (एवं संपेहेइ) मा प्रमाणे भामुन भेषभारे विया२ ४ो. (संपेदित्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयगीए जाय जलंते जेणेव समणे भगवं महापारे तेणेव उवागच्छइ) આ પ્રમાણે વિચાર કરીને જ્યારે પ્રભાત થયું અને સૂર્યનાં કિરણે ચોમેર ફેલાવા airयो त्यारे भुनिशे मेघgभा२ श्रमाय नगवान महावीरनी पासे पाया. (उवा For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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