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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका. अ १ स. ४८ मेघमुनेः संलेखणाविचारः ५३७ पूर्व्या चरन् ग्रामानुग्रामं द्रवन सुखमुखेन=मुखपूर्वकं सुख तेन संयमसमाधिनेत्यर्थः, विहरन् यत्रैव राजगृहं नगरं यत्रौव गुणशिलकं चैत्यं तो. वोपागच्छति, उपागत्य यथाप्रतिरूपं यथाकल्पम्, अवग्रहमवगृह्य, संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति ॥मू० ४७॥ मूलम्--तएणं तस्स मेहस्स अणगारस्स राओ पुव्वरत्तावरत्तकाल समयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था-एवं खलु अहं इमेणं उरालेणं तहेव जाव भासं भासि. स्सामीति गिलाएमि तं अस्थि तामे उटाणे कम्मे बले वीरिए पुरि सकारपरकमे सद्धाधिई संवेगे तं जाव तामेअस्थि उटाणे कम्मे बले. वीरिए पुरिसकारपरक्कमे सद्धाधिई सवेगे जाव इमे मम धम्मायरिए धम्मो. आमश-औषधी आदि लब्धियों से उत्पन्न हुए तेज से, अतिशय शोभित होने थे। अर्थात् शुभध्यानरूप तप से ये भीतर में सदा प्रकाशमान रहते थे। (तेणं काटेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थगरे जाव पुन्वानुपुचि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुह सुहेणं विहरमाणे जेणामेव रायगिहे नयरे जेणामेव गुण सिलए चेइए तेणामेव उवागच्छइ) उस काल में उस समय में श्रमण भगवान् महावीर जो आदिकर थे तीर्थकर थे यावत् पूर्वानु. पूर्वी का पालन करते हुए एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विचरते हुए संयम : का आराधन करते हुए जहों राजगृहनगर और जहां गुणशिलक नामका उद्यान था वहां आये। (उवागच्छित्ता प्रहापडिरूवं उग्गहं उग्गिहित्ता संजमेणं तवसा अपाणं मावेमाणे विहरइ) आ करके यथा कल्प अवग्रह लेकर संयम और तपसे आत्मा को भावित करते हुए वगीचा में विराजमान हो गये । ।।मूत्र ४७॥ पुयानु चि चरमाणे गामाणुगामं दृइज्जमाणे सुहं सुहेण विहरमाणे जेणा मेव रायगिहे नयरे जेगामेव गुणसिलए चेइए तेगामे व उवागच्छइ) તે કાળે અને તે સમયે શ્રમણ ભગવાન કહાવીર કે જેઓ આદિકર હતા, તીર્થકર હતા, પૂર્વાનુપૂર્વોનું પાલન કરતા એક ગામથી બીજે ગામ વિચરતા સંયમની આરાધના ४२ता या ना भने यो गुण शिस ना उद्यान हतु त्या पयार्या. (उदा. गच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिठित्ता संजमेण तवसा अप्पाण भावेमागे विहरह) पधारीने यथा८५ २अब सन संयम भने तपथी पोताना सामान ભાવિત કરતા ઉદ્યાનમાં વિરાજમાન થયા છેછા For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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