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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका. अ १ स. ४६ मेघमुनेः प्रतिमादितः स्वीक णम् ५२७ प्रतिमाः सम्यक् कायेन स्पृष्ट्वा पाठविला शोचयित्वा तीरयित्वा कीर्तयित्वा भगवान् महावीरस्वगत्य पुनरपि श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत - इच्छामि खलु हे भदन्त ! युष्माभिरभ्यनुज्ञातः सन् 'गुणरत्न संवत्सरम्' विनयश्रुताचारमभूतनिर्जरादिगुणा एव रत्नानि यत्र स गुणरत्नः संवत्सरो यमिगत सि, तद् गुणरत्नसंवत्सर, अथवा 'गुणरयणसं वच्छ' इत्यस्य गुणरचन संवत्सरं इतिच्छाया, गुणानां निर्जरा विशेषाणां रचन=कारण संवत्सरेण = सतृतीय भागवर्षेण यस्मिंस्तपसि तत् तथा, तत् 'तत्रो कम्म तपः कर्म 'उर संपज्जितणं' उप वह नहीं है। (तरण से मेहे अणगारे वारसभिक्खुपडिमा सम्मं कारणं फासिता, पालिता, सोहिता, तीरिता, किट्टित्ता, पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंदह, वंदिता नसित्ता एवं बयासी) वाद में मेवकुमार मुनिराजने १२ भिक्षु प्रतिमाओं को अच्छी तरह काय से आराधित करके, चोर २ उपयोग पूर्वक उनका परिपालन करके, अतिचाररूप कीचड को उनसे दूर करके, उनके पारको प्राप्त करके उनका कोर्तन करके पुनः श्रमण भगवान महावीर को वंदना की - नमस्कार किया-वंदना नमस्कार करके फिर वे इस प्रकार कहने लगे (इच्छामिणं भंते तुम्भेहिं अनार समाणे गुजरयणसं तत्रोकम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरितए) हे भदंत ! मैं आपसे आज्ञा माप्त कर गुणरत्नरूप संवत्सर वाले तपः कर्म को करना चाहता हूँ विनयाचार, श्रुताचार पभूतनिर्जरा आदि ये गुण शब्द के वाच्यार्थ हैं । ये रत्नजित तप में हैं वह गुणरत्नतप है। ऐना तप हे भदंत ! उथन सर्वज्ञोपदृिष्ट होवाथी सदोष नथी. (तएण से मेहे अणगारे बारसभिक्खु पडिनाओ सम्भं कारणं फासित, पालिता, साहित्ता, तीरिता किट्टित्ता पुरीसम मग महावीरं चंदइ नमस, वदिशा, नर्मसित्ता एवं वयासी) ત્યાર પછી મુનિરાજ મેઘકુમારે કાયાથી સારી પેઠે બાર ભિક્ષુપ્રતિમાઓને આરાધિત કરીને વારંવાર ઉપયોગ પૂર્વક તેમનુ પાલન કરીને, અતિચાર રૂપ કાદવને તેમનાથી દૂર કરીને, તેમના પાર પાર્કીને, તેમનું કીર્તન કરીને ફ્રી શ્રમણ ભગવાન મહાवीरने वहन ने नमस्कार . वहन ने नमस्कार रीने तेभले अङ्खु - ( इच्छामि णं भंने तुम्भेहि अण्णाए समाणे गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं उब संजित्ताणं ) है लहंत ! हु आपनी मात्रा भेणवने गुशुरत्न३५ सवસરવાળા પકર્મને કરવા ચાહુ છું. વિનયાચાર, શ્રતાચ.૨, પ્રદ્ભૂતનિર્જરા વગેરે આ 'गुलु' शब्दनी वाय्यार्थ छे, या रत्नों के तथभां छे ते 'गुरत्नत' छे. हे लद्दत! For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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