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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साताधर्म कथामा प्राप्तगजभवेन 'अपडिलद्धसमत्तरयणपडिलंभेणं' अप्रतिलब्धसम्यक्त्व रत्नप्रतिलम्भेन, तत्र-अप्रतिलब्धम् अनंतकालादसम्माप्तं सम्यक्त्वरत्नं, तस्य प्रतिलम्भो-लाभो यस्यसातेन प्राप्तसम्यक्त्वेनेत्यर्थः' से पाये' असौ. पादःचरणः-स्त्वया स्वगात्रकण्डूयनार्थमुक्षिप्तः प्राणानुकम्पया यावत् अन्तराचेव भूमेरूवमेव त्वया संधारितः स्थापितः, खलु नैव शशकोपरि निक्षिप्तः चकारादन्यभूतानामुपरि च स्वचरणो न क्षिप्तः सकलजीवोपरिपरमकाणापरा. यणत्वात् इति भावः, एक्कारो निश्चयार्थकः, 'ण' वाक्यालंकारे 'किमंग पुण तुम मेहा' किमङ्ग ! पुनस्त्वं हे मेघ ! अंग' इति कोमलामंत्रणे, हे मेघ ! पुनस्त्वं 'इयाणि' इदानीं अधुना विपुलकुलममुग्भवे' विपुलकुलममुद्भः = विशालवंशजातः निरुबहयसरीरदंतलद्धपंचिदिए' निरुपहतशरीरदान्त. लब्धपञ्चेन्द्रियः, तत्र-निरुपहतं-उपद्रवरहितं शरीरं यस्य सः, तथा दान्तानिः= उपशमं नीतानि प्रागगजभवे, लब्धानि प्राप्तानि सन्ति पञ्चेन्द्रियाणि येन सः रूपमें दीक्षित हुए (तं जइ जाव तुमं मेहा! तिरिक्वजोणियभावमुत्रगएणं अपडिलद्ध संमत्तारगणपडिलभेणं से पाये पाणाणुकंपयाए जाच अंतराचेव संधारिए) तो यदि हे मेव ! तुमने जब कि हाथी रूप तियश्च की पर्यायमें वर्तमान थे अन्तकाल से अपतिलब्ध हुए सम्यक्त्व रग्न के लाभ से वह पैर जो गात्र कण्डयन (शरीर खुजलाने) के लिये उठाया था प्राणि आदि को अनुकंपा से प्रेरित होकर बीच में ही उठाये रखा (णो चेव णं निक्खिते ) उसे जमीन पर नहीं धरा और न शशक के ऊपर ही रखा तथा वहां बैठे हुए अन्य प्राणियों के ऊपर भी नहीं रखा (किमंग पुण तुमं मेहा! इयाणि विपुलकुलसमुन्भवे निरूवहयसरीरदंत लद्धपंचिदिए) तो फिर उस समय हे मेघ ! विशालकुलमें उत्पन्न हुए तभे ॥२ भटीन मना२ ३ हीक्षित या. (तं जइ जाव तमं मेहा ! तिरिक्खजोणियभावमुवगएणं अपडिलद्धं संमत्तरयणपडिलंभेणं से पाये पाणाणुकंपयाए जाव अंतरा चेव संधारिए) ने भे! तमामे हाथीना તિર્યંચના પર્યાયમાં અનન્તકાળથી અપ્રતિબ્ધ (અપ્રયાય) થયેલા સમ્યકત્વ રત્નના લાભથી શરીરને ખંજવાળવા માટે ઉપાડેલા તે પગને પ્રાણી વગેરેની પ્રત્યે અનુ पाथी रान अपथ्ये । SA सभ्यो (जो चेवणं निक्खित्ते), तेने मीन પર મૂક્ય જ નહિ તેમ સસલા ઉપર મૂળે નહિં અને ત્યાં બેઠેલાં અન્ય પ્રાણી १५२ प भूयो ना (किमंग पुण तुमं मेहा ! इयाणि विपुलकुलसभन्भवे निरुवहयसरीरदंतलद्धपंचिदिए ) त्यार पछी 3 मे ! मा मते तमे वि For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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