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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ५०० शाताधर्मकथानमत्रे ऋतुषु समइक नेमु' समतिक्रान्तेषु व्यतीतेषु, ग्रीष्मकालसमये-ग्रीष्मऋतुसम्ये, जेष्ठ'मूले मासे-ज्येष्ठमासे, पायवसंघ समुट्ठिएणं' पाइपसंघर्षसमुत्थितेनवंशा रण्यादि संघर्षगजनितेन, 'जार संबटिएम' यावत् संवनितेषु अत्र यावच्छ. ब्देन-शुष्कतृणपत्रकचवरमारुतसंयोगदीपितेन महाभयंकरेण हुतबहेन वनदव मालासप्रदीप्तेषु वनेषु धमन्याप्तासु दिशासु. महाबातवेगेन संघट्टितेषु छिन्नजालेषु, आपतत्सु, सकोटरक्षेषु कोटराभ्यन्तरे दह्यमानेषु० वनपदेशेषु, भृङ्गारिका दीनक्रन्दितरवेषु वृक्षेषु. यत्र गिरिवरेषु पक्षिसघाः पिपासावशेन शिथिलीकृतपक्षाः बहिष्कृतजिवातालुकाः, व्यावृतमुवा भवन्ति, तत्रैत्यादि उऊसु) पांच -प्राट्, वर्षारात्र शरद, हेमन्त, और वसन्त ये ऋतुएँ (समइक्कतेसु ) व्यतीत हो चुकी थीं और (गिम्हकालसमयंसि) गीष्मकाल का समय आ चुका था और जब (जेट्टामूले मासे) जेठे के महीने में (पायवसंघससमट्रिएणं जीव संवट्टिएसु मियपसुपक्खि. सरीसवेसु दिसोदिसं विप्पलायमाणेसु) वृक्षादिक के परस्पर संधर्षण से पैदा हुई अर्थात् पवन से कंपित हुए वंश आदि का परस्पर घर्षण से उत्पन्न हुई । यावत् ।। शब्द से शुष्क पत्र तण आदि रूप कूडे में पवन के संयोग से दीपित हुई, ऐसी महा विकराल जंगल की अग्नि से वन प्रज्वलित हो रहा था तथा दिशाएँ धम से आच्छादित हो रही थीं एवं कोटरयुक्त--पोले वृक्ष वात के वेग से संघटित होकर आग लगने से नीचे जमीन पर गिर गये थे तथा उनमें लगी--अग्नि ज्वालो जब शान्त हो गई थी। तथा वन के वृक्ष भृगारिकों के दीन आनन्द शब्दों से युक्त हो रहे थे। तथा पर्वतों के ऊपर पिपासा के वश से पाकुलित हुआ पक्षी शिथिल पंखवाला पटित ताल जिहा वाला तथा श२६, हेमन्त मने वसन्त ऋतु। (समइक्कतेसु) मे से रीने ५सा२ 05 अने (गिम्दकालसमयंसि) Guनी मोसम आधी ते मते (जेहाम्ले मासे ) ४ महिनामi ( पायवसंघससमुहिएणं जाव संबटिएसु मियपमुपविखसरिसवेसु दिसोदिसि विप्पलाठमाणेसु) पवनथी पित थये। વાંસ વગેરેના પરસ્પર ઘર્ષણથી ઉદ્ભવેલા, “યાવત” શબ્દથી શુષ્ક તૃત્ર ઘાસ વગેરેમાં પવનના સહગથી પ્રજવલિત થયેલા વનના મહા વિકરાળ અગ્નિથી જ્યારે જંગલ સળગી ઉઠયું હતું તેમજ ચેમેર દિશાઓ ધુમાડાથી ઢંકાઈ ગઈ હતી, પિલાં વૃક્ષો પવનના સંઘર્ષણથી સળગીને જમીનદોસ્ત થઈ ગયાં હતાં. અને ધીમે ધીમે તેમાં સા ગતી અગ્નિજવાળાઓ શાંત થઈ ગઈ હતી, જંગલના વૃક્ષો ભંગારિકેના દીનકંદનથી શબ્દ યુકત થઈ રહ્યા હતા, પર્વતેના ઉપર તરસ્યાં અને વ્યાકુળ થયેલાં For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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