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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ. ९ स. ४१ मेघमुनेह स्तिभववर्णनम् ४७९ नद्याः दक्षिणे कूले 'विंझगिरिपायमूले विन्ध्यगिरिपादमूले विध्यपर्वतसमीपे 'एगेणं' एकेन मत्तवर गन्धहस्तिना एकस्याः गजवरकरेणुकाया: घरहस्तिन्याः कुक्षौ गर्भे गजकलभक 'जणिए'-जनितः उत्पादितः-त्वं हस्तिनीगर्भे समुत्पन्न इति भावः। ततःश्वल सा गयकलभिया' गनकलभिका-वरहस्तिनी पूर्णेषु नवसु मासेषु बसंतमासे 'तुमं पयाया' त्वां पाजनयत् । ततःखलु हे मेघ ! त्वं गर्भवासात् 'विप्पमुक्के' विषमुक्तः निस्मृतः सन् गजकलभकश्चाप्यभवः त्वं हम्ति बालकः संजातः। कीदृशस्त्वमासीरित्याह-रप्पलरत्तम्मालए' रत्तोत्पल रक्तसुकुमारकः तत्र रक्तोत्पलं रक्तकमलं तद्वत रक्तः रक्तशरीरः सुकुमारः सुकोमल:-य कालं किच्चा इहेब जंबूद्दीवे २ भारहे बासे दाइिणड्डभरहे गंगाए महानदीए दाहिणे कलेविझगिरिपायमूले एगेणं मत्तवरगंधहथिणा एगाए गयवरकरेणूए कुच्छिसि गयकलभए जणिए) पश्चात् १२०, वर्ष की अपनी उत्कृष्ट आय को समाप्त कर मन से दुःखित, देह से दुःखित, इन्द्रियों से दुःखित बने हुए तुम वहीं पर मर गये और मरकर इस मध्य जबूद्वीप में भारतवर्ष में, दक्षिणार्ध भरत में, गगा महा नदी के तट पर विध्यगिरि के समीप एक मत्तवरगन्धहस्ती के द्वारा गजवरकरेणु का के गर्भ में गजकलभरूप से उत्पन्न हुए। (नएणं सा गजकलभिया णवण्हं मासाणं वसंतमासमि तुम पयाया), जय ठीक नोमास का समय व्यतीत हो चुका-तय उस गज कलभीकाने वसंत के महिना मे तुम्हें जन्म दिया। (तए तुमं मेहा । गम्भवासाओ विप्पमुक्के समाणे गयकलभए याविहोत्था) इस तरह हे मेघ ! तुम गर्भवास से निकल कर हस्ती मासे कालंकिच्चा इहेब जंबूहीवे २ भारहेवासे दाहिणभरहे गंगाए महा. नइए दाहिणे कले विज्ञगिरिपायमूले एगेणं मत्तवरगंधहस्थिगा एगाए गयवरकरेणूए कुच्छिसि गयकलभए जणिए ) त्या२ मा मेसी वीश (૧૨) વર્ષનું પિતાનું લાંબુ આયુષ્ય ભેગવીને મન, દેહ અને ઇન્દ્રિયોથી દુખિત થઈને તમે ત્યાંજ મરણ પામ્યા અને ત્યાર પછી આ મધ્યજંબુદ્વીપના દક્ષિણ ભરતક્ષેત્રમાં મહાનદી ગંગાના કાંઠે વિંધ્યગિરિની પાસે એક મદમનવર ગન્ય હાથી દ્વારા ગજવર કરેણુકા (હાથીણી) ના ગર્ભમાં હાથીના કલભ (બચ્ચા) ના રૂપે તમે उत्पन्न यया. (त एणं सा गयकलभिया जेवण्हं मासाणं वसंतमासंमि तुम पयाया) न्यारे पराम२ नवभास पूरा च्या त्यारे ते ०४२ eilet (थिली) मे सत भासभा तभने म आयो. (त एणं तुम मेहा गम्भवासाओ विप्प मुक्के समाणे गयकलभए याविहोत्था) भाएं समांथा भुत धने For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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