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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञाताधर्म कथासूत्रे ३४ सीहेणं' पुरुषसिंहेन पुरुषेषु सिंह इव राग पादिशत्रु पराजये दृष्टाद्भुत पराक्रमत्वात्, तेन 'पुरिसवरपुंडरी एणं' पुरुषवरपुण्डरीकेण - पुण्डरीकं कमलं, वरं च तत्पुण्डरीकं वरपुण्डरीकं प्रधानकमलं, पुरुषो वरपुण्डरीकमिवेत्युपमितसमासे पुरुषवरण्डरीकं तेन । भगवतो वरपुण्डरोकोपमा च विनिर्गताखिलाशुभमलीमसत्वात्, सर्वैः शुभानुभावैः परिशुद्धत्वाच्च । यद्वा-यथा कमलं पङ्काज्जातमपि सलिले बर्द्धितमपि - चोभयसम्बन्धमपहाय निर्लेपःसदा जलोपरि वर्त्तते, निजानुपमगुणगणच लेन सुरासुरनरनिकरशिरोधारणीभूतयाऽतिमहनीय परमसुखास्पदं च भवति तथाऽयं भगवान् कर्मपङ्काज्जातो भोगाम्भोवर्द्धितोऽपि निर्लेपस्तदुभयमतिवर्त्तते, गुणसम्पदास्पदतया च केवलज्ञानादिगुणभावादखिलभव्यजनशिरोधारणीयो भवतीति । विशेषण से युक्त हुए हैं। रागद्वेष आदि अन्तरंग शत्रुओं को पराजित करने में प्रभुने अपना अद्भुत पराक्रम प्रकट किया है इसलिये उन्हें पुरुषों में सिंह जैसा कहा गया है | भगवान " उत्तम पुण्डरीक ( कमल) जैसे पुरुष थे, कारण उनकी आत्मा से अखिल अशुभरूप मलीनता सर्वथा निकल चुकी थी- - तथा समस्त शुभानुभावरूप निर्मलता पूर्णरूप से बढ़ चुकी थी । अथवा जिस प्रकार कमल पंक से उत्पन्न होता है और जल से बढ़ता है फिर भी वह इन दोनों से संबन्धित होता हुआ बिलकुल निर्लिस बनकर सदा जल के ही ऊपर रहता है तथा अपने अनुपमगुणगण के बल से सुर, असुर एवं नर निकरों द्वारा शिरोधार्य होकर अतिमाननीय गिना जाता है और परममुख का स्थान माना जाता है, उसी तरह भगवान् भी कर्मरूप पंक से उत्पन्न हुए ओर भोगरूप जल से बढे - फिर भी इन से निर्लिप्त होकर वे इनसे सदा दूर ही रहे । और अन्त में केवल ज्ञानादि गुणों के आविर्भाव से वे सकल भव्यजनों के शिरोधार्य बन गये । सिद्ध देवा उडेवामां आव्या है. लगवान 'उत्तम पुण्डरीक' (श्वेत उभण) नेवा પુરુષ હતા. કેમકે તેમના આત્મામાંથી સંપૂર્ણ અશ્રુભરૂપ માલિન્ય સર્વથા નીકળી ગયું હતું, તેમજ સકલ શુભાનુભાવરૂપ નિર્મળતા સંપૂર્ણ રૂપમાં વૃધ્ધિ પામી હતી. અથવા જેમ કમળ કાદવમાંથી ઉદ્દભવે છે, જળથી વધે છે, છતાં તે આ બન્નેથી અસંબંધિત થઈ ને સર્વથા નિષ્ઠિ બનીને હમેશાં પાણીની ઉપર જ રહ્યા કરે છે તેમજ પાતાના શ્રેષ્ઠ ગુણોના બળવડે સુર, અસુર અને નર સમૂહાવડે શિરોધાય થઈ ને બહુજ સમ્માનનીય ગણવામાં આવે છે, અને અતિ સુખનુ ં સ્થાન મનાય છે, એ જ રીતે ભગવાન પણ કરૂપ કાદવમાંથી અવતર્યા, અને ભાગરૂપ પાણીથી વૃદ્ધિ પામ્યા, છતાં પણ તેઓ એમનાથી નિર્લિપ્ત થઈ ને એમનાથી હંમેશ દૂર જ रह्या અને અંતે કેવળજ્ઞાન વગેરે ગુના આવિર્ભાવથી તે બધા ભવ્યજનાના શિરાધા બન્યા. For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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