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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणोटीका असू.३७ मेघकुमारदीक्षोत्सवनिरूपणम् ४२७ यावद् 'जीविभोसासिए' जीवितोवासकःज वितं प्राणधारणं उद्धासयति वर्धयति इति सः अम्माकं प्राणधारक इत्यर्थः 'हिययाणंदजणए' हृदयानन्दजनकः अन्तःकरण प्रमोदकारकः किं बहुना उदंबरपुष्पमिव श्रवणेऽपि दुर्लभः किं पुनः हे अङ्ग ! दर्शने हे प्रभो ! 'से जहानामए' अथ यथानामकम् - यथारष्टान्तम् , 'उप्पलेति वा' उत्पलं-नीलकमलं, 'पउमेतिवा' पद्म-मूर्यवि. काशिकमलं, 'कुमुदेति वा' कुमुदं चन्द्रविकाशी श्वेतकपलविशेषः, 'पके जाए' प? जातं-उत्पन्न 'जले संथिए' जले संवड़ित-ऋद्धिमुपागतं किन्तु 'क रयणं' पंकरजसा पंकएव रजः पंकरजः तेन कर्दमेन 'नोबलिप्पई' नोपलिप्य ते, एवं 'जलरएणं' जलरजसा 'नोवलिप्पई' नोवलिप्यते 'एबामेय' एवमेव अनेनैव एसा कहा-(एपण देवा प्पिया। मेहे कुमारे ) हे देवानुप्रिय ! यह मेघ. कुमार (अम्हं एगे पुने) हमारे यहां एक ही पुत्र है--(इहे कंते जाव जीवियोसातिए ) इसलिये यह हमें इष्ट है और कांत है यावत् जीवितो च्छवोसभूत है। अर्थात् हमारे प्राणों का आधारभूत है। (हिययाणंदजणए) हृदय को आनन्द पहुँचानेवाला है। (उंबरपुप्फंपिव दुल्लहे सबणयाए किमंगपुणदरिसणयाए) हे नाथ जिस प्रकार उदुर के पुष्प के दर्शन को लो बात दूर रही उसका नामश्रवण भी जैसे दुर्लभ हैं उसी तरह प्रभो हमें भी इसका नाम श्रवण दुर्लभ है। (से जहाना मए उप्पलेइ वा कुमुदेइ वा पंके जाए जले संवाईए नोवलिप्पइ पंकरएणं नोवलिप्पइ जलरएणं) जिस प्रकार नील कमल, सूर्य पिकातीपा और चन्द्र विकाशी कुमुद कीचड़में उत्पन्न होते हैं, जलमें बढते हैं किन्तु पंकजरूप रज से तथा जलरूप रज से वे उपलिप्त नहीं होते हैं ( एवामेव प्रिय ! - मेधभार ( अम्हं एगे पत्ते ) अभाशे मेनो मे ॥ पुत्र छ (इथे कंते जाव जीवियोसासिए ) मेट! भाटे 240 मभने छुट छ भने in छ यावत् सवितावास भूत गेटवे मा सभा। प्राणानो साधार छ (हिययाणदजणए) हयने मान पाउना२ छ, (उंबरपुप्फंपिव दुल्लहे सवणयाए किमंगपुगदरिसणयाए) 3 नाय ! म २।(भ२/ना)पु०पनी नेवानी पात ते દૂર રહી પણ તેનું નામ સાંભળવું પણ દુર્લભ છે, તેમજ હે પ્રભો ! અમને પણ मा भेषमा नाम सins प हुन तु. ( से जहा नामए उप्पलेइ वा कुमुदेइ वा पंकजाए जले संडिए नोवलिप्पइ पंकरएणं नोवलिप्पइ जलरएणं) वी शते नी भस, सूर्य विशी पम, मने यन्द्र विशी કુમુદ કાદવમાં ઉદભવે છે, પાણીમાં વધે છે છતાં એ કાદવ રૂ૫ રજથી તેમજ પાણી ३५ २०यी तेमा मलित २ छ ( एवामेव मेहे कुमारे कामेस जाए भोंगेसु For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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