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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०८ . স্থানাখন কথা सहस्त्रवाहिनीं शिथिका परिवहेह' परिवहत ततःखलु तत् कौटुंम्बिकवरतरुणसहस्र श्रणि कन राज्ञा एवमुक्तं सत् हृष्टतुष्टं तस्य मेघ कुमारस्य पुरुषसहस्रवाहिनीं शिबिकां परिवहति । ततः खलु तस्य मेघकुमारम्य पुरुषसहस्रकाहि शिबिकां 'दुरूढस्स' दूरूढस्य-समारूढस्य सतः 'इमे' इमानि-पुरतो वक्ष्यमाणानि 'अट्ठमंगलया' अष्टाष्टमंगलकानि अष्टाष्टाविति वीप्सायां द्वित्वे, प्रत्येक वस्तु अष्टसख्यक विज्ञेयम् अष्टारप्टो मंगलानि मङ्गलकारकोणि वस्तूनि अष्टाष्टमंगलकानि 'तप्पटमयाए' तत्प्रथमतया तेषु मध्ये प्रथमता तया-प्रथमामत्यर्थः पुरतः शिविकायाअग्रतः, 'अहाणुएबीए' यथा नुपूर्व्या अनुक्रमेण 'संपद्विया' सम्प्रस्थितानि-पचलितानि, 'तं जहा' तद्यथो तान्य मूनि-'सोवत्थिय' सौवस्तिकःचतुष्कोणमाङ्गलिकचिह्नविशेष', 'श्रीवत्सः२' 'णं दियावत्त' नन्दयावर्तः प्रतिदिङ् नवकोणकः स्वस्तिकविशेषः३, 'वद्धमापिया ! मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्स वाहिणो सीयं परिवहेह) हे देवानुपियो ! तुम सब जाओ और मेघकुमार की पुरुष सहस्र वाहिना पालखी को उठाओ। (तएणं तं कौटुंबियवरतरुणसहस्सं सेणिएणं रन्ना एवं वुत्तं संतं हतुटुं तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्सवाहिगि सीयं परिवहेह) इस प्रकार श्रेणिक राजा द्वारा आज्ञापित हुए उन हजार युवा कौटुम्बिक पुरुषोंने बडे अधिक हर्ष से संतुष्ट होते हुए मेघकुमार की उस पुरुष सहस्र वाहिनी पालखी को उठाया (तएणं तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरूढम्स समाणस्स इमे अट्ठमंगल या तप्पढमयाए पुरओ अहाणुपुब्बीए संपट्टिया) इसके बाद पुरुष सहस्त्रवाहिनी पालखी पर बैठे हुए उस मेघकुमार के आगे २ सर्व प्रथम यथा क्रम से ८-८ मंगलकारी वस्तुएँ प्रस्थित हुई। (तंजहां) वे ये हैं--(सोवत्थिय )-स्वस्तिक चार कोणों वाला एक मांगलिक चिह्न विशेष (सिरिवच्छ ) श्री वत्स (णंदियावत्त ) नन्दिकावर्त ) प्रत्येक रस्म पुरिससहस्सवाहिणी सीयं परिरहे ह ) हे देवानुप्रियो ! तभे गया । भने भेघमारनी पु२५ सहन पाहिनी पीने यो. (तएणं तस्स मेहस्स कुमारस्स परिससहस्सबाहिणी सीय दरूढस्स समाणम्स इमे अट मंगलया तप्पढमयाए पुरओ अहाणुपुबीए संपट्ठिया) त्या२ मा पुरुष स९.२५ वाहिनी પાલખી ઉપર બેઠેલા મેઘકુમારની આગળ સૌ પહેલાં અનુક્ર આઠ આઠ મંગળ री वस्तुमे रामपामा मावी ती. (तंजहा) ते मी प्रमाणे छ--(सोवत्थिया) स्वस्ति या२ भूपाणु मे भांति थिल विशेष, (सिरिवच्छ) श्रीवत्स, (मंदियावत्तं ) नवित्त-४२४ दिशामा नव भूपाणु स्वस्ति यह For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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