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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अगरधर्मामृतवर्ष गोटीका अ १.३० मातापितृभ्यां मेघकुमारस्य संवादः ३६५ = Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वा' पातुं वा रसादिकं न कल्पते, इत्यनेन सम्बन्धः 'तुमं च णं जाया ! त्वं खलु हे जात !'मुहसमुचिए "सुखसमुचितः = सुख योग्यः सुखहेतुकमात्रमेव तब जीवन मि त्यर्थः 'नो चेत्र दुहसमुचिए' नैव खलु दुःख समुचितः - दुःखयोग्यो नैवासि, कदापि दुःखं त्वया न दृष्टमिति भावः । खलु = वाक्यालंकारे' 'नालं सीयं' नालं शीतं, 'अलं' शब्दोऽत्र समर्थार्थकः तेन शीतं ' अहियासित्तए' अध्यासितुं= सोढुं इत्यन्तिमपदेन सम्बन्धः, न समर्थः, एवं 'उण्डं' उष्णं 'खुहं' क्षुत्रां पिवास' पिपासां 'वाइयपित्तियसिभिय सण्णिवाइयविहिरोगा के' वाक पैति श्लेष्मिक सान्निपातिक विविध रोगार्तकान् तत्र दातिकाः = वातविकारसमुद्भवाः आमवातादयः, वैत्तिकाः=पित्तविकारसमुद्भवाः मूर्छादयः, श्लेष्मिकाः= कासश्वासादयः, सान्निपातिकाः = वातपित्तकफ संयोजका उन्माद मलापादयः, द्वारा प्रदर्शित की गई है तथा - हे पुत्र ! तुम ( सुहसमुचिए) इस अवस्था के लायक नहीं हो तुम्हारा जीवन तो केवल एक मात्र सुख हेतुक ही है - सर्व प्रकार के सांसारिक सुख भोगो-इसलिये तुम्हारा यह मनुष्य जीवन हैं । ( णो चेत्र णं दुहसमुचिए ) दुःखों को भोगने के लिये नहीं है । ( णालं सीयं णालं उन्हं णालं खुहं णालं पिवासं णालं वाइय पितिय सिभियसन्निवाइए विविहे रोगायंके उच्चावए गामकंटए बाबीसं परिसहोवसग्गे उदिने सम्मं अहियासिन्तए) तुम शीत को सहन करने में समर्थ नही हो, उष्ण को सहन करने में समर्थ नहीं हो क्षुधा को सहन करने में समर्थ नही हो तृषा को सहन करने में समर्थ नही हो, वात से उत्पन्न हुए रोगों को पित्तसे उत्पन्न हुए रोगों को श्लेष्म से उत्पन्न हुए रोगों को, तथा वात, पित्त-कफ के संयोग से उत्पन्न हुए अनेकविध रोगों को आतंकों को, तुम सहन करने में समय या षहे। बडे दृर्शानयामां भावी ते हे पुत्र ! तभे (मुहसमुचिए) माने योग्य પણ નથી. તમારું જીવન તેા ફકત સંસારના સુખ-ભાગો માટે જ છે. સંસારના અધા સુખા તમે ભાગવી શકે એટલા માટે જ આ તમારૂ શરીર છે, આ તમાશ मनुष्य म. (णो वेत्र णं दुहसमुचिए) दुःम लोगववा भाटे आ मनुष्य कन्भनथी; (नालं सीयं णालं उन्हं णालं खुः णालं पिवासं णालं वाइय-पित्तिय- सिंभिय सन्निवाइए विवि रोगायंके उच्चावए गामकंटए बावीसं परिसहोव सम्मे उद्दिन्ने सम्मं अहियासि) तमे ठंडी सहन उरी शम्शो नहि, गरभी सहनउरी शम्शो नहि, તરસ સહી શકશે। નહિ, વાતથી ઉત્પન્ન રાગાને, પિત્તથી ઉત્પન્ન થયેલા રાગે ને, શ્લેષ્મથી ઉત્પન્ન થયેલા રાગે ને તેમજ વાત, પિત્ત કફના સંયોગથી ઉત્પન્ન થયેલા અનેક જાતના શગેાને તમે સહન કરવા લાયક નથી. આ પ્રમાણે ઇન્દ્રિયાના પ્રતિકૂળ અનેક For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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