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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३६० ज्ञाताधर्म कथाfभ्रत्रे ६ निर्याणं कर्म तो बहिर्भवनं, तस्य मार्गः = पुनराहत्या=गमनरहितत्वात् यत्र गत न कदाचिदपि पुनः संसारे समायाताति भावः । 'निव्वाणमग्गे' निर्वाणमार्ग:निर्माण= निराबाधसुखं समस्त कर्म कृतविकाररहितत्वात् तस्य मार्गः 'सबदुक्खपहीण मग्गे' सर्व दुःखप्रहीण मार्गः - सर्वाणि = शारीरिक मानसिकानिच दुःखानि इति सर्वदुःखानि तेभ्यः प्रहीण: =प्रक्षीणः चासोमार्गः सकलक्लेशक्ष यकारकत्वात् तथा, 'अहीव एगंतदिद्वीप' अहिरिव एकान्तदृष्टिकम् आमिष ग्रहणं प्रति अहिरि सर्प इव चारित्रपालनं प्रति, एकान्ता एकाग्रा दृष्टि बुद्धि यस्मिन् वचने तत्, एकाग्रतायाः दुष्करत्वात् तया सादृश्यमिति भावः । तथा 'खुरो इच एगंतधाराए' क्षुर इव एकान्तधारकं क्षुरग्य = शस्त्रविशेषस्य च एकान्तो अद्वितीया धारा यस्य तत् अपवाद क्रिया वर्जितैकधारमित्यर्थः, 'लोहमया इव जत्रा चावेयन्त्रा' लोहमया इव यधाचयितव्याः लोहमय धना से होती हैं इसलिये जो मुक्ति का मार्ग रूप है, जो (निज्जाण मध्ये) जिवके लिये कार्य से अलग होने रूप निर्णय का मार्ग है (निच्चामग्गे) निर्वाण का मार्ग है- निराबाध सुख का नाम निर्वाण है क्यों कि यह सुख कर्मकृत विकार से रहित होता है - ऐसे (सञ्चदुक्खपहीणमग्गे) सकल कर्मजन्य क्लेशों का क्षयकारक होने के कारण यह शारीरिक एवं मानमिक- दुःखों से रहित एक अद्वितीय मार्गरूप है । (अहीव एगंत दिडीए) जैसे सर्प की दृष्टि आमिषग्रहणकी तरफ एकाग्ररूपसे होती है उसी तरह चारित्रपालन के प्रति जिसमें एकान्तरूप दृष्टि है-निर्ग्रन्थ प्रवचन किमी भी अवस्था में चारित्र अंगिकार करनेवाले को यह उपदेश नही देता है कि तुम उसचारित्र में शिथिलता प्रदर्शित करो। (रोव एगंतधाराए) जैसे क्षुरा की धारा एकान्तरूपसे तीक्ष्ण रहा करती है— उसी तरह मार्ग वा छे, ? (निज्जानमग्गे) वने भाटे अर्थथी हुं थवा ३५ निर्णय-भार्ग छे, (निव्वाणमग्गे ) निर्वाणुना भार्ग छे, निरामाध सुनु नाम નિર્વાણુ છે, કેમકે આ સુખ કરેંજન્ય કિારથી રહિત હોય છે, એવા અવ્યાબાધ गुणनो भार्ग निग्रंथ प्रवथन ४ छे ( सन्वदुक्खपही मग्गे) समस्त उर्भજન્ય કલેશાનું વિનાશક હોવાથી નિગ્રંથ પ્રવચન શારીરિક અને માનસિક દુઃખ विहीन गोड अपूर्व भाग ३५ . ( अहित्र एगंत दिट्ठीए ) प्रेम साधनी नगर માંસ ગ્રહણ કરવા તરફ ચાંટીને રહે છે, તેમ જ ચારિત્ર પાલન પ્રત્યે એકાન્તરૂપ દ્રષ્ટિ જે વ્યકિતમાં છે, નિગ્રંથ પ્રવચન કાઇ પણ સોંગામાં ચારિત્ર સ્વીકારનારાને या उपदेश नथी आापता हैं तभे यारित्र्यमा शैथिस्य मतावे. (खुरो इव एगंत धाराए ) प्रेम छरानी धार अन्तइये तीक्ष्णु होय छे, ते ४ प्रमाणे आमां पशु 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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