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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४० शाताधर्मकथासूत्रे कृत्यत्वातदपेक्षा रहितो भूत्वा श्रमणस्य भगवतो महाविरस्यान्तिके मुण्डो भूत्वा अगारादनगारितां प्रत्रजिष्यसि । ततः स मेघकुमारो मातापितृभ्या मेवमुक्तः सन् मातापितरामेवमवदत्-तथैव खलु हे मातापितरौ ! यथैव खलु यूयं मामेवं वदत,-'स्वमसि खलु हे जात ! अस्माकमेकः पुत्रः तं चेव' तदेव 'जाव यावत् निरपेक्षः श्रमणस्य३ यावत् प्रव्रजिष्यसि, अयंभाव:अस्माकमेएवपुत्रः पाणसमस्त्वमसि, त्वद्विरहं सोदुमसमर्था वयम् तस्माद भुश्व मानुष्यकान कामभोगान् अस्माकं जीवितावधि, ततःपश्चाद् वृद्धत्वे कुलवंशसंन्तानं वयित्वा कृतकार्यः सन् मुण्डो भूत्वा प्रजिष्यसीति। एवं -(समणस्म भगवओ महावीररस अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अण गारियं पचइस्ससि) श्रमण भगवान महावीर के पास मुंडित होकर गृहस्थास्था से मुनि अवस्था धारण कर लेना । तएणं से मेहे कुमारे अम्मा पिऊहिं एवं वुत्त समाणे अम्मा पियरो एवं वयासी) इस प्रकार माता पिता द्वारा इस प्रकार समझाये गये उस मेघकुमारने उन माता पिता से ऐसा कहा---(जहेव णं तुम्हे ममं एवं वदह तहेव नं त अम्मयाभो) आप जैसा मुझ से कहते हैं वह ठीक है कि "तुर्मास जाया अम्हं एगे पुने तं चेव जाव निरावयक्खे समणस्स भग वओ महावीरस्स जाव पधइस्ससि ) तुम मेरे एक ही पुत्र होप्रागसम हो-हम तुम्हारे विरह को सहन करने के लिये असमर्थ हैं - इसलिये जब तक हम लोग जीवित हैं तबतक मनुष्यभव सम्बन्धी कान भागों को तुम आनंद के साथ भोगो-उस के बाद वृद्धावस्था में कुल वा संतान बढाकर जब तुम कृतकार्य हो जाओ तो मुंडित होकर -निश्चित धने- (समणस्स भगवभो महावीरस्स अंतिए मुडे भविता अगाराओ अणगरियं पन्वइस्मसि) श्रमण भगवान महावीरनी पासे भुलित थाने स्थ भटीने मुनि ५५स्था धा२५ ४२०२. (त एणं से मेहे कुमारे अम्मा पिकहिं एवं बुत्ते समाणे अम्मा पियरो एवं क्यासी) भाता-पिता ॥ २॥ प्रमाणे समजवायेसा भेषभारे माता-पिताने - (जहेच गं तुम्हे ममं वं वदह तहेव णं तं अम्मथाओ) तभे भने । छ। ते 15 2-3 ( तुम सिणं जाया अम्हं एगे पुने त घेव जाब निरावयवखे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पब्वइस्ससि) तमे भा। येना से पुत्र छ, प्राणु सम છો, અમે તમારા વિરહને સહન કરવામાં તદ્દન અસમર્થ છીએ, એટલે જ્યાંસુધી અમે કવિએ છીએ ત્યાં લગી મનુષ્યભવના કામભેગેને તમે આનંદપૂર્વક ભેગ, ત્યારબાદ ઘડપણમાં કુળવંશની વૃદ્ધિ કરીને જ્યારે તમે ગૃહસ્થની સંપૂર્ણ ફરજ For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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