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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२८ शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे भाग्यवानसि खलु त्वम्, 'संपुन्नोऽसि' संपूर्णोऽसि समस्तगुणसंभृतोऽसि धर्माध्यवसायवत्वेन सकलगुणगरिष्ठोऽसि, 'कयस्थोऽसि' कृतार्थोसि कृतः अर्थः स्वात्मकल्याणरूपो येन स तथाऽसि, 'कयलकारणोऽसि तुमं-जाया!' हे जात! त्वं कृत लक्षणोऽसि-कृतानि-सफलीकृतानि, लक्षणानि=शरीरर्ति मशतिलकादि चिनानि येन स तथाऽसि, 'जन्न' यत्-यस्मात् खलु त्वया श्मणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके धर्मो निशान्तः श्रुतः, सोऽपि च 'तत्र धर्मः इष्टः प्रतीष्टोऽभिरुचितः। ततः खलु स मेघकुमारो मातापितरौ 'दोच्चंपि' द्वितीयवारमपि 'तच्चपि तृतीयवारमति एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् एवं खलु हे मातापितरौ मया श्रमणस्य३ अन्तिके धर्मो निशान्तः श्रुतः, सोऽपि च मम धर्मः तुमं जाया, कयलक्खणोसि तुमं जाया) हे पुत्र ! तुम बहुत बडे भाग्य शाली हो तुम समस्त गुणों से भरे हुए हो, तुम कृतार्थ हो, तुमने अपने शरीर वर्षो समस्त शुभलक्षणों को सफलित कर लिया है (जन्नं तुमे समणस्स भगवओ महावीरम्स अंतिए धम्मे णिसंते) जो तुमने भगवान महावीर के मुख से श्रुतचरित्र रूप धर्म का श्रवण किया है । (से वि य ते धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए) और उसे तुमने अपने इष्ट का साधक बने अंगीकार किया है आराध्यरूप से उसे जाना है तथा वहतुम्हे अभिरुचित हुआ है। तएणं से मेहे कुमारे अम्मापियो दोच्चंपि तच्चपि एवं वयासी) मेघ कुमारने अपने मातापिता से दुवारा और तिवारा भी ऐसा ही पूर्वोक्तरूप से कहा कि-एवं खलु अम्मयाओ मए समणस्स भगवो महावीरस्स अंतिए धम्मे निसंते से विय मे धम्मे Pा क्यनो समगीन मातापिता-ये यु-(धन्नेसि तुम जाया, कयत्थोसि तुमं जाया, कयलक्खणोसि तुमं जाया) पुत्र ! तभे पर मायाजी छौ, તમે સકળ ગુણ સંપન્ન છે, તમે કૃતાર્થ છો, તમે પોતાના શરીરવતી બધા શુભसाक्षणाने सण नाव्यां छ. (जन्नं तुमे समणस्स भगवओ महावीररस अंतिए धम्मे णिसंते) भ त मगवान महावीरन॥ भुमथी श्र! यात्रि३५ धनु श्रवण यु छ. ( से वि य ते धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए અને તેને તમે પિતાના ઈષ્ટ સાધકરૂપે સ્વીકાર્યો છે, આરાધ્યરૂપે તે ધર્મને જાણ્ય छ तेभ ते तभने भी गयो छ. (तएणं से मेहेकुमारे अम्मापियरो दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी) मेघमारे पोताना मातापिताने ४ी भने श्री मत पशु ॥ प्रभा १ ४ - (एवं खलु अम्मयाओ मए समणस्स भगवा महावीरस्स अंतिए धम्मे निसंते से विय मे धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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