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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३२ ज्ञाताधर्म कथासूत्रे पुष्पादि गृहन्ती 'गिव्हाचे माणी य' ग्राहयन्ती सखीद्वारा 'माणेमाणी य' मानयन्ती - लतादि स्पर्शादीनां सुखमनुभवन्ती 'अग्वायमाणी ' जिघ्रन्ती च पुष्पादिकम् 'परिभुंजमाणी' परिभुञ्जाना फलादिकम् सखीभिःसह 'परिभायमाणी' परिभाजयन्ती फलादि खाद्यवस्तूनां यथायोगं विभागं कुर्वाणा, वैभार गिरिपादमूले एवं दोहदं 'विणेमाणी' विनयन्ती = पूरयन्ती 'सव्वओ' सर्वतः सर्वप्रकारेण 'समता' समन्तात् सर्वदिक्षु 'आहिंडइ" आर्हिण्ड ते = इतस्ततो गच्छति । ततः खलु सा धारिणी देवी अकालमेघदोहदे पूर्णे सतिविनीत दोहदा = पूरितदोहदा अकालमेवप्रादुर्भावोत, संपन्नदोहदा=अकालमेघदर्शनात्, सम्पूर्णदोहदा = अकालमेघवर्षणशोभावलोकनपूर्वकयथेच्छ क्रीडाकरणात् संमानितदोहदा स्वमनो रथानुकूलसकलवस्तुलाभात् जाताचाप्यभवत् । ततः खलु सा धारिणीदेवी सेचके निमित्त ग्रहण किया औरं सखियों द्वारा भी उन्हें ग्रहण कराया । लतादिको के स्पर्श आदि से उसने सुखका अनुभव भी किया पुष्पों को वहां उसने सूंघा भी । सखियों के साथ२ सने फलादिकों को खाया भी। तथा उनका वहाँ उसने विभाग भी किया । इस तरह विविध क्रीडाओं द्वारा उसने वैभारगिरिके तलहट्टी में अपने दोहद की पूर्ति की । और सर्व प्रकार से वह वहां समस्त दिशाओं में इधर से उधर घूमी । (तपणं सा धारिणीदेवी विणीय दोहला संपन्न दोहला मंपुन्न दोहला संभाणिय दोहला जाया यावि होत्था) इस प्रकार वह धारिणी देवी अकाल मेघ दोहद के पूर्ण होने पर अकाल मेघ के प्रादुर्भाव से पूरित दोहदा अकाल मेघ के दर्शन से संपन्न दोहहा अकाल मेघ के प्रादुर्भाव से पूरित दोहदा, अकाल मेघके दर्शन से संपन्न दोहदा, अकाल मेघ के वर्षण से शोभा का निरीक्षण करती हुई यथेच्छ क्रीडा के करने से संपूर्ण दोहदा और अपने मनोरथ के अनुकूल सकल वस्तुओं के लाभ से संमानित दोहदा बन गई। (तरणं से धारिणी देवीं सेवणय गंध हथि મેળવ્યું. તેમણે ત્યાં પુષ્પોની સુવાસ લીધી, અને સખીજને સાથે તેમણે ફળ વગેરે ની ત્યાં તેમણે વહેંચણી પશુ કી. આ પ્રમાણે અનેક જાતની ક્રીડાએ દ્વારા તેમણે વૈભાર પર્વતની તળેટીમાં પોતાના દેહદની પૂતિ કરી. તે ત્યાં સર્વ રીતે આમતેમ (एणं सा धारिणी देवी विणीय दोहलासंपन्न दोहलासंपन्न दोहलासंमाणिय दोहलाजाया रात्रि होत्था) या प्रमाणे धारिणी हेवी खाण भेध દાદ પૂર્ણ થયા પછી, અકાળ મેઘના પ્રાદુર્ભાવિથી પૂતિ દોહદા, એકાળે મેઘદર્શનથી સપન્ન દાદા અકાળે મેઘવર્ષ ણથી, શોભાનું નિરીક્ષણ કરતી પોતાની ઈચ્છા મુજબ ક્રીડાએ કરવાથી સંપૂર્ણ દાદા અને પોતાના મનાથને અનુકૂળ બધી વસ્તુ For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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