SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १२ ज्ञाताधर्म कथासूत्रे एतदुभयविमुक्तः=जीवीताशामरण भयरहिताः । 'तत्रपहाणे' भयेषूच्चतरम् रुपः प्रधानः- तप एव प्रधानं कर्म यस्य स तथा शेषमुनिजनापेक्षया श्रेष्ठतपःशाली । 'गुण पहाणे' गुणप्रधानः - गुणा = संयमगुणास्तैःप्रधानः । एतेन विशेषणद्वयेनायमर्थोऽभिव्यज्यते तपसा पूर्व सञ्चितकर्मणो निर्जरणं, संयमेन च नूतनकर्मबन्धनिरोधों भवत्यतएव तौ मोक्षाभिलाषीणां मोक्षसाधनेऽतीवोपादेयौ कथितौ । एवं करण-चरणनिग्रह - निश्चया -ऽऽर्जन - मार्दव - लाघव - क्षान्ति- मुप्ति-मुक्ति- विद्या-मन्त्र-ब्रह्मवेद - नय - नियम - सत्य - शौच - ज्ञान चारित्रप्रधानः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अत्रसूत्रे ' एवं ' शब्देन करणचरणादौ सर्वत्र 'प्रधान' शब्दः संयोजनीयः, तथाहि -करणप्रधानः- करणं पिण्डविशुद्ध [त्तरगुणरूपं तत्प्रधानः परन्तु ये इस प्रकार की आशा और भय से सर्वथा रहित थे । अन्यमुनिजनों की अपेक्षा ये तपश्चरण करने में विशेषशूर थे इसलिये ये तपप्रधान थे संयमगुणों से ये प्रधान माने जाते थे । इसलिये - संयमप्रधान थे । इन दोनों विशेषणो से सूत्रकार का यह प्रकट करने का आशय है कि संचित कर्मोकी निर्जरा तप से होती है और नूतन कर्मों के बंध का अभाव संयम से होता है इसलिये जो मोक्षाभिलाषी जन हैं उन्हे ये दोनों ही बाते उपादेय हैं । कारण इन से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है । ( एवं करणचरण निगगह- णिच्छय अज्जन- मद्दव - लाघव-वंति गुत्ति- मुत्ति १०, विज्जामंत, बभवेय-नय-नियम- सच्च सोय णाणदंसण २० चारित ओराले) यहाँ जो " एवं " शब्द का प्रयोग श्राया है उससे यह जाना जाता कि- पूर्वोक्तप्रधान शब्द का प्रयोग इन करण-चरण आदि प में लगाना चाहिये। पिण्डविशुद्धि आदि उत्तर गुण रूप जो करण પણ હાય તો પણ એ આ જાતનાં આશા અને ભયથી સ ંપૂર્ણ રીતે રહિત હતા. બીજા મુનિઓ કરતાં એ તપશ્ચરણ કરવામાં વિશેષ શૂર હતા. એટલા માટે એ તપપ્રધાન હતા. સંયમગુણાથી એએ પ્રધાન માનવામાં આવતા હતા. એથી જ એ સયમ પ્રધાન હતા. આ અન્ને વિશેષણાથી સૂત્રકારના એ આશય છે કે તપથી જ સ ંચિત કર્મોની નિર્જરા થાય છે. અને નવીન કર્મીના અધના અભાવ સંયમથી જ થાય છે. એટલા માટે જ તે મોક્ષાભિલાષી છેતેમના માટે આ અન્ને વાતા ઉપાદેય છે. કારણ हैं शोभनाथी मुस्तिनी प्रप्ति थाय छे. ( एवं करणचरणनिग्गहणिच्छय अज्जव - मद्दव - लाधव - खंति गुत्ति मुनि १०, विज्जामंत, बंभवेयनय नियम, सच सोयाण दंसण, २०, चरित्तओराले) अड़ी ने “भेव” शण्डनो प्रयोग भावेस છે. તેનાથી એ જાય છે કે પૂર્વતિ પ્રધાન શબ્દનો પ્રયોગ આ કરણ ચરણુ' વગેરે પદોમાં લગાડવા જોઈએ. ઉપવિષ્ણુદ્ધિ વગેરે ઉત્તર ગુણુ રૂપ ने કરણ સિત્તેરી For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy